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ritesh deo

Abstract

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नया चेहरा, वही नकाब

नया चेहरा, वही नकाब

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"नया चेहरा, वही नकाब" वो नहीं ढूंढ़ते इलाज, वो ढूंढ़ते हैं छुपने की जगह। जिन ज़ख़्मों से निकलना चाहिए, उन्हीं के नीचे बिछा लेते हैं नया रिश्ता। ना सवाल, ना जवाब, ना "मैंने ऐसा क्यों किया?" सीधा पहुंच जाते हैं — "अब अगला कौन है जिससे मैं ये कर सकूं?" पुरानी गलतियों की राख ठंडी भी नहीं हुई, और वो हाथ थाम लेते हैं किसी नए दिल का — जो अभी टूटा नहीं, जो अभी जागा नहीं। वो नहीं बदलते, वो बस चेहरे बदलते हैं। नई औरत, नया किस्सा, पर झूठ वही पुराने — प्यार के नाम पर छल की दोहराई गई कहानी। और पीछे छूट जाती है वो औरत — जिसने सच्चा प्रेम किया, जो अब टूटे सपनों के टुकड़े समेट रही है, ज़ख़्म सिल रही है जो उसके बनाए ही नहीं थे। वो देखती है उसे — एक और चेहरे के साथ, एक और मुस्कान के पीछे, एक और छल की शुरुआत। क्योंकि बदलाव इंस्टाग्राम की फ़ोटो नहीं, आत्मा का आईना होता है। और जो आईने से डरता है, वो कभी खुद को नहीं बदलता। सच्चे मर्द भागते नहीं, वो रुकते हैं। वो टूटे हिस्सों को जोड़ते हैं, ज़िम्मेदारी उठाते हैं। वो किसी और के दिल में पनाह नहीं, ख़ुद के अंदर समाधान ढूंढ़ते हैं। जब तक ये फर्क न समझा जाए — 'आगे बढ़ना' और 'आगे बढ़ने का दिखावा' — तब तक अच्छी औरतें टूटते रहेंगी, उन आदमियों से जो अधूरे ही रहना चुनते हैं।


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