सुनो ना...
सुनो ना...
कहीं से कोई
पुराने संदेशों की ख़ुशबू ले आओ
जिनमें धड़कते थे मौसम
जहाँ हर लफ्ज़ भीगता था तुम्हारे लरज़ते हाथों से
कुछ लिफ़ाफ़े खोलें
जिनमें बंद हैं कुछ रातों की रौशनी
कुछ अल्फ़ाज़ जो लिखे नहीं गए
बस आँखों में ठहर गए थे
तुम्हारे जाने के बाद भी
कितनी बातें
बिखरी हैं अब तक हवा में
जो कहनी थीं, पर रह गईं
जैसे आधे लिखे शेर
जो मतला माँगते हैं अब तक
ज़िन्दगी ने तो
सब पक्के दस्तावेज़ रख लिए
मगर कुछ कच्ची सतरें
जो हमारे दरमियान थीं
अब भी बेतरतीब पड़ी हैं
कुछ सुबूत
जो बस एहसास थे
उनका हिसाब कौन रखेगा?
तुम्हारी हँसी की हल्की सी लकीर
मेरी हथेली पर अब भी दर्ज़ है
सुनो न
कहीं से कोई
वक़्त का पुराना आईना ले आओ
जिसमें फिर से देख सकें
वो लम्हे
जो हमने जिए नहीं, मग़र खो दिए...
या चलो, खुद ही चल पड़ते हैं
उन पुरानी गलियों में
जहाँ हर मोड़ पर
हमारी चुप्पियों ने कहानियाँ लिखीं थीं
जहाँ कोई शाम अब भी हमें पुकारती होगी
जहाँ धूप की परछाइयाँ
हमारी यादों से उलझती होंगी
क्या पता, किसी मोड़ पर
वक़्त की मुड़ी हुई पर्चियों में
अब भी रखे हों कुछ अधूरे ख़्वाब
या शायद हमारी ही परछाइयाँ
अब भी हमें वहाँ तलाशती हों...
लेकिन तुम नहीं आओगी ना?
जानता हूँ, सब बदल गया है
वो संदेश, वो यादें, वो लम्हे
शायद किसी अलमारी के किसी कोने में
धूल खाते होंगे, जैसे हमारी मोहब्बत!!!!
मैं ये भी जानता हूँ कि अब तुम्हारी आँखों में
वो बेचैनी नहीं रही, जो कभी मेरे लिए थी
अब शायद मेरी याद तुम्हारे लिए
बस किसी भूले-बिसरे किस्से की तरह होगी
मग़र मुझे पता है...
कभी किसी सुनसान रात में
जब दुनिया सो जाएगी और तुम जागोगी
तो मेरी आवाज़ तुम्हारे कानों में गूँज उठेगी
और तुम चाहकर भी खुद को रोक न सकोगी
तब एक आँसू तुम्हारी पलकों से गिरकर
इसी ज़मीन पर आ गिरेगा
जहाँ कभी हम दोनों ने ख्वाब बोए थे
मग़र फसल... बस जुदाई की उगी...।
और तब मैं...
किसी ठंडी रात के साए में
एक बेनाम ग़ज़ल के मिसरे सा
किसी किताब की आख़िरी पन्ने पर
लिखा मिलूँगा तुम्हारी यादों में
जहाँ तुम्हारी आँखें भी उसे पढ़ते ही भीग जाएँगी
और तुम चाहकर भी पन्ना पलट न सकोगी...

