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ritesh deo

Abstract

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विचार और भावना

विचार और भावना

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मनुष्य के भीतर विचार और भावना ये दो शक्तियाँ निरंतर सक्रिय रहती हैं। विचार सीमित हैं, उन्हें भाषा, तर्क और अनुभवों की ज़ंजीरों में बाँधकर समझा जा सकता है। परंतु भावनाएँ असीम हैं वे लहरों की तरह उठती हैं, गिरती हैं, किनारों को तोड़ती हैं, और कभी-कभी खुद भी अपने अस्तित्व की थाह नहीं पा पातीं। जब बात स्त्री और पुरुष के संबंधों की होती है, तो यह द्वंद और अधिक गहराता है। दोनों एक-दूसरे को समझने का प्रयास करते हैं शब्दों के माध्यम से, संवाद के द्वारा, अपने-अपने दृष्टिकोणों से। परंतु संबंधों की आत्मा केवल विचारों से नहीं चलती। विचार एक तर्क की सीमा तक साथ देते हैं, लेकिन जब भावनाएँ उमड़ती हैं, तब विचार अक्सर लौटने लगते हैं जैसे किनारे तक आई लहरें जो थक कर वापस लौट जाती हैं, और फिर नए वेग से लौटती हैं। स्त्री और पुरुष दो भिन्न अनुभवों, संवेदनाओं और सामाजिक अपेक्षाओं में पले हुए मनुष्य जब एक-दूसरे के साथ जीवन साझा करते हैं, तो उनके भीतर का यह भाव-विचार द्वंद उभरने लगता है। पुरुष, अक्सर, अपने अनुभवों को तर्क से ढालने का प्रयास करता है। स्त्री, वहीं, अनुभवों को महसूस करने की गहराई से समझती है। लेकिन यह विभाजन केवल जैविक नहीं, यह सामाजिक और मानसिक भी है और कभी-कभी इससे उत्पन्न होता है असमझ का एक अव्यक्त दुःख। रिश्तों में संघर्ष तब शुरू होता है जब विचार, भावनाओं को थामने की कोशिश करते हैं। जब कोई कहता है, "तुमने ऐसा क्यों किया?", वह दरअसल अपनी पीड़ा को समझने की कोशिश कर रहा होता है पर तर्क के माध्यम से। जबकि सामने वाला शायद सिर्फ यही चाहता है कि उसकी भावना सुनी जाए, समझी जाए, बाँटी जाए। इस पल में विचार निष्प्रभ हो जाते हैं, वे भावनाओं की असीमता के आगे टिक नहीं पाते। रिश्ते तब ही फलते हैं जब हम तर्क से ज़्यादा अनुभव में जीना सीखते हैं। इसीलिए, जब विचार सीमित होकर लौट आते हैं, तब भावनाओं की लहरें फिर से किनारों से टकराने लगती हैं। यह टकराव कभी संवाद बनता है, कभी मौन, और कभी केवल एक दृष्टि जो सब कुछ कह जाती है। यदि हम इस भावनात्मक लय को समझने लगें, तो रिश्ते भी लहरों की तरह लयबद्ध हो जाते हैं। वे केवल उत्तरों की खोज नहीं करते, बल्कि साथ-साथ बहने की कला सिखाते हैं। अंततः, स्त्री और पुरुष के बीच का संबंध कोई स्थिर रचना नहीं, बल्कि एक जीवित, गतिशील प्रक्रिया है। इसमें विचार आते हैं, लौटते हैं; भावनाएँ उठती हैं, बिखरती हैं, और फिर एक नई दिशा लेती हैं। यह संबंध तब ही प्रगाढ़ होता है जब दोनों यह स्वीकार कर लें कि विचारों की एक सीमा है, पर भावनाओं की कोई नहीं और उस असीमता में ही, शायद, सच्चा मिलन छिपा है।


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