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Jalpa lalani 'Zoya'

Abstract

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Jalpa lalani 'Zoya'

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नाउम्मीदी में उम्मीद

नाउम्मीदी में उम्मीद

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2212  2212  2212  2212

उम्मीद की इक ही किरण  नाउम्मीदी में निकली है,

जो बंद मुठ्ठी में रखो रेत फ़िर भी वो तो फिसली है।


औरत कभी  ना इश्क है  करती ये कहता  कौन है?

>महबूबा अपने सिर्फ़ दिलबर की बाँहों में बहकी है।


तक़दीर पे  औ  वक़्त पे  सब  छोड़ना  अब बंद हो,

हाथों की रेखा क्या है अब तक़दीर भी तो बदली है।


यूँ इश्क़  में मज़हब का कैसा ये  नज़रिया है अलग,

हर गुल के रस को चूसती जो प्यार से वो तितली है।


जज़्बात मैं  लिखती, बहर मैं  सीखती  पर दरअसल,

तारीफें सुनके पाठकों की ग़ज़ल-ए-'ज़ोया' निखरी है।

5th November 2021 / Poem 45


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