दीया कब का बुझ गया
दीया कब का बुझ गया
सारी रात गुजर गई पर बात बाकी रह गई
तुम सामने ही थे पर यह आँखे प्यासी रह गईं
सदियों इन्तजार किया था इस मुलाकात का
यूँ लगा की यह रात चंद घड़ियों में बह गई,
कुछ वो डरे तो कुछ शरमाए हुए से हम भी थे
चंद पलों में कहां तय होते हैं सदियों के फासले
उनको इतना करीब देख इक कयामत सी आई
मेरी डबडबाती आँखे फिर क्या क्या ना कह गईं ,
आगे बढ़े वो और कस के लगा लिया मुझे गले से
आज मिला है सुकून ना जाने कब से थे थके से
ना मुझ से छोड़ता बना ना बो छोड़ पाए मुझे
ना जाने कितनी कयामत आई और आ के गुजर गई,
वो जो बैठे पास, यूं लगा के कायनात पहलु में है
उस रात अगर कोई सिकंदर था तो वो था मैं
भरोसा बस उठने की वाला था उसकी खुदाई से
तू मिला तो लगा के दुआ मेरी भी कबूल हो गई,
बातों ही बातों में उसकी उंगलिया मेरे हाथो में थी
होंठ खुश्क हो गए और धड़कनो में बेचैनीे सी थी
सागर से मिलकर दरिया, अब दरिया ना रहा
छुआ जो उसको उसकी नज़रें बोझिल सी हो गईं,
लेटा के गोद में छुपा लिया उसने जुल्फों से मुझे
वो देख रही थी और मैं महसूस कर रहा था उसे
पिघल सा गया मैं उसने चुमा कुछ इस तरह से
दीया कब का बुझ गया बस बाती सुलगती रह गई।

