मेरी गजल रूठ गई
मेरी गजल रूठ गई


मेरे लफ्ज़ो में अब शायद बो बात ना रही
मेरी गजलों की किस्मत में बज्म ना रही
लफ्जो में जोर ना रहा या दर्द कम हो गया
दाद खूब मिली मगर अब बाहबाही ना रही
सब ढूढ़ने में लगे है अगल़ात मेरी गजल में
इस अंजुमन को अब मेरी इक़्तिज़ा ना रही
मौसम की तरह बदलती है इन्तिख़ाब यहाँ
अब तो मेरी लिखने की इश्तियाक़ ना रही
ना क़ल्ब को ना कलम को सकून मिलता है
यहां ख़ामो में ख़ालिश की कोई क़दर ना रही
अब क्या फायदा सुना कर तुझे अपनी ज़ह्मत
जब मेरे कद्रदानों को मेरी जुस्तजू ही ना रही!