शुक्राना
शुक्राना
दिए आपने शब्द कलम को
मेरी रचना के जो आधार बने
भरे आपने ही रंग तूलिका में
मेरे चित्रों के जो श्रृंगार बने
मैं कुछ बना पाऊं
इस काबिल ही नहीं
जब मिलती है प्रेरणा आपसे
बनती है कोई रचना नयी
न जाने कहाँ से शब्द आ जाते
आपस में सब जुड़ते से जाते
स्वयं सोचकर हैरान हूँ होती
कैसे कविता में बंध से जाते
यूँ ही एक लकीर फिर
दूसरी खिंचती सी जाती
न जाने कैसे स्वयंमेव ही
एक सुन्दर चित्र बना है जाती
मैं तो हूं अज्ञानी गिरधर
आप तो हैं सब जाननहार
खुद करवाकर काम आप तो
हमारा ही करवा देते हो नाम
बस यही अरज है आपसे गिरधर
मेरे प्रेरणा स्त्रोत ही बने रहना
बस ये शब्द ही तो हैं
जिनसे चाहती हूँ
दिल की बात कहना।

