'प्रकृति और प्रदूषण'
'प्रकृति और प्रदूषण'
बोलती गर धरा जो हमसे
व्यथा ह्रदय की दिखलाती
हुई बेजान बंजर-सी मैं
शस्य-श्यामला थी कहलाती
प्रदूषण के जाल में फँस
खुलकर श्वास नहीं ले पाती
कचरे प्लास्टिक की जकड़न
अब तनिक सही नहीं जाती
हुई बेबस अब तो देखो
बस तन-मन से दुर्गंध है आती
भूकंप बाढ़ की मार भी
तपन संग मिल मुझे सताती
नफरत की चिंगारी-सी लपटें
सीने को मेरे दहकाती
उजड़ गया अब यौवन मेरा
जिस पर थी मैं इठलाती
मैं प्रकृति हो करबद्ध आज
समक्ष तुम्हारे बनी हूं प्रार्थी
समय रहते कर लो संरक्षित
मैं ईश्वर की अनमोल थाती