उसने प्रेम किया था
उसने प्रेम किया था
मैं और कुछ नहीं जानती
बस इतना जानती हूँ
कि उसने प्रेम किया था
प्रेम,जो शायद किया नहीं जाता
हो जाता है
वैसे ही जैसे
धरती से फूट पड़ा हो कोई पौधा
प्रेम ,जो परिभाषित नहीं किया जा सकता
शब्दों में
अनुभूत किया जा सकता है भीतर
वैसे ही जैसे बहती है मन के भीतर
कोई सरिता,कभी कभी
उसने उसी प्रेम को अपना ईश्वर माना होगा
और की होगी पूजा तन और मन से
वो कहती होगी अक्सर
मेरे रोम रोम में प्रेम है तुम्हारा
लेकिन तुमने क्या किया
उस प्रेम को तलाशने के लिए
उसके देह को टुकड़ों टुकड़ों में बांट दिया
फिर भी खोज ना पाए ना तुम प्रेम?
क्योंकि तुम समझ ही नहीं पाए
प्रेम होता क्या है,
किस रंग और रूप में मिलता है
तुमने कभी महसूस ही नहीं की होगी
प्रेम की शीतलता
तुमने कभी सीखा ही नहीं होगा
प्रेम में समर्पण
अपने पूरे वज़ूद का
तुम्हारे लिए तो ये एक खेल था।