पहचान
पहचान
कौन कहता है कि मैं पूरी हूँ
मैं कहती हूँ हाँ मैं अधूरी हूँ
कभी यूँ ही देर तक सोती हूँ
बेवज़ह सपनीली दुनिया में खोती हूँ
कभी कभी कुछ बेपरवाह सी हो जाती हूँ
भूलकर सारे कामकाज
सहेलियों के साथ गप्पों में खो जाती हूँ
मन नहीं करता मेरा भी कभी कभी
कि सबकी सब फरमाइशें सुनूं
होता है ऐसा भी
कि बस अपने मन को ही चुनूँ
बुनती हूँ ताने बाने कभी कभी
जो मुझे ,बस मुझे अच्छे लगते हैं
कोई कहे मुझे आधा अधूरा
वो शब्द भी सच्चे लगते हैं
मैं कोई आसमा से उतरी जादूगरनी नहीं
जो चुटकियों में सब सुलझा दे
मुझमें भी वो कमियां हैं
जो बनती बातों को उलझा दे
मैं कब कहती हूँ मुझे पूर्ण कहो
मैं जैसी हूँ
चौथाई आधी या पौनी
स्वीकारो वैसा ही मुझे और प्रेम से मेरे साथ रहो
सुनो तुम जैसी ही एक इंसान हूँ मैं
मत कहो मुझे कि सबसे महान हूँ मैं
आधी कच्ची आधी पक्की सी
जैसी भी हूँ अपनी ही पहचान हूँ मैं।