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Harsh Upadhyay

Drama Inspirational

4.6  

Harsh Upadhyay

Drama Inspirational

जिनको अपनों की तलाश है

जिनको अपनों की तलाश है

4 mins
206


आज सुबह मेरे अखबार के आखिरी पन्नों में

छोटे से अक्षरों में छपा एक नाम था

होता तो करीबी कहता उसे 

पर काफी अरसे से वो अनजान था


ऐसा नहीं की मैं उसे जानता नहीं था

आखिर कई साल हम साथ स्कूल गए थे

पर वही ज़िंदगी की दौड़ और वक़्त की मार

सहते सहते साथ रहना भूल गए थे


पर उसकी छपी तस्वीर देख कर,

हमारे पुराने किस्से याद कर

मेरे चेहरे पर जो खुशी थी

मानो मुरझा गई खबर पढ़ कर उसके इंतकाल की 

बताया जा रहा था जिसकी वजह खुदकुशी थी


अब उम्र ऐसी थी कि मैं संभल तो गया

वरना खबर पढ़ कर कदम तो अभी भी लड़खड़ा रहे थे

पहले दिलासा दूँ खुद को या एक दुआ उसके नाम करुँ 

बस इस होड़ में मेरे लफ्ज़ हड़बड़ा रहे थे


पर मन मानने को तैयार न था

कि वो आदमी जो ज़िंदगी से इतना भरपूर था

आखिर ऐसा क्या हुआ होगा उसके साथ जो आज

वो उसी ज़िंदगी से इतना दूर था 


अपनी तसल्ली के लिए सही मैंने मान लिया

हो सकता है वो उदास और अकेला था

तो ज़मीर ने मुझसे पूछा कहीं वो तुम तो नही

जिसने उन हालात में उसे धकेला था


अपने गम बाँटे तो थे ना उसने तुमसे

काश तुम समझ पाते कि वो कोई मज़ाक नही था

पर सच तो दरअसल ये है कि

उसकी बातों का तुम्हारे पास कोई जवाब नही था


कि कैसे एक मुलाकात कि तारीख और

तुम्हारी फुरसत पाने में 

उसके महीनों गुज़र जाया करते थे

पर ना जाने क्यों उस तारीख के नज़दीक आते ही

तुम बेवजह मुकर जाया करते थे


उससे अलग एक दुनिया जो थी तुम्हारी

जहाँ तुम आगे बढ़ने में इतने मग्न थे 

कि भूल गए उसका हाथ थामना, थामते तो

देख पाते उसकी कलाइयों पे कितने ज़ख्म थे


तकलीफ बेसबब लगती थी उसे मगर 

जिस्म छील कर दर्द को जरिया दे चुका था वो

तुमसे मिल कर, अपने घाव ढक कर, 

हाँ सब बढ़िया कह चुका था वो


उसने भी कहाँ तुम्हें रुकने की कोई वजह दी

और ना ठहरने के बहाने तो तुम्हारे पास भी कई थे

अब उसके जनाज़े पर दावा करना साथ निभाने का क्योंकि 

उसके रहते तो तुम उसके साथ नहीं थे


बस... बहुत बोल चुके मेरे ज़मीर, मुझ पर,

ये इल्ज़मात लगाने से पहले उससे ये सवाल क्यों नहीं किया

कि ये कदम उठाने से पहले उसने

अपने घरवालों का खयाल क्यों नहीं किया


घरवालों से बात होती तो जाने क्यों वो

उसकी मायूसी को उसकी नाकामी का बयान समझ लेते थे

रोज़ हार रहे एक शख्स की बेबसी को

रोज़मर्रा की थकान समझ लेते थे


पर परिवार को कल की चिंता ज़्यादा थी

तो समझा दिया उसे आज की फ़िक्र ना करने को

फिर थोड़ी सख्ती बरती और कह दिया

किसी और से इन बातों का ज़िक्र ना करने को


तो उसने भी अब ये मान लिया था

कि खुशियाँ नहीं मेरे हिस्से बस गम हैं

मैं रोना चाहूँ भी तो कहाँ जाऊँ, मेरे पास 

रोने के लिए कंधे बहुत कम हैं


ये जान कर मेरे कदम जो लड़खड़ा रहे थे

वो आ गिरे ज़मीन पर और मैं अपनी नज़रों में

शर्मिंदगी हुई सोच कर कि ज़िंदगी तो मैं जी रहा था

वो तो बस काट रहा था कतरों में


सोचो कितनी ना-उम्मीदी रही होगी उसके ज़हन में

कि उससे जीने का हौसला तक भी ना जुट सका

चाहता वो पँखों पर उड़ना था मगर

एक पंखे के बल, ज़मीन से केवल,

चंद फीट ऊपर उठ सका


उस खबर में जहाँ उसकी तस्वीर थी

उसके ठीक नीचे छपा उसका एक आखिरी खत भी था

यूँ तो कभी बात रखने का मौका नहीं दिया उसे 

पर आज वो खत पढ़ने के लिए मेरे पास वक़्त भी था


जाते जाते लिखता गया वो कि

हो सकता है मेरे इस किए को तुम माफ न कर सको

पर जान लो जितनी ज़िंदगी जी है मैने

मेरे जाने के बाद शायद उसका हिसाब न कर सको


माना कमी खुशियों की थी मगर

मैंने अपने दोस्तों की दुआएं कमाई हैं

अपना फायदा नुक्सान भले न देख पाया कभी

दिखी तो बस मुझे अपनों की भलाई है


अब लोगों को ये बात शायद मंज़ूर ना हो

पर मुझे फिर भी ये समझाना सही लगा

मैं तुम लोगों की तरह आगे नहीं बढ़ सका

तो मुझे यहीं थम जाना सही लगा


पर दूसरी तरफ इंतज़ार करूँगा सबका

आखिर एक दिन तो हम सब ठहर जाएंगे 

तब तक के लिए कुछ खुराफाती सोचता हूँ

तुम सब आओगे तो मिल के कहर ढाएँगे


अच्छा हाँ अगर हो सके तो मेरे जाने के बाद

किसी और को मेरी जगह दे देना

बहुत मिल जाएंगे मेरे जैसे भटके वहाँ

उन्हीं में से किसी एक को अपनी पनाह दे देना


और इस बार उन्हें ये सोचने का मौका मत देना

कि आखिर क्यों ये दुनिया उनके खिलाफ है

इस बार सबको अनदेखा कर उनका हाथ थामना

जिनको बस अपनों की तलाश है

जिनको बस अपनों की तलाश है।


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