घड़ी दो घड़ी
घड़ी दो घड़ी
घड़ी टूट गई,
शायद हाथ से छूट गई,
बाज़ार जाकर,
अपनी जेब का हिसाब लगाकर
एक पिता,
बेहद खूबसूरत सी घड़ी खरीद लाया,
नए घर की दीवारों का अंदाज़ा लगाया।
नई जगह चुनी और घड़ी लगाई,
कुछ सोच पिता की आंखें भर आई।
सुबह ठीक साढ़े आठ बजे घड़ी देखकर,
बेटे ने पिता को पुकारा,
जल्दी कीजिए, पूरा दिन
क्या कोई इंतजार करेगा हमारा।
पिता ने मिनट की सुई की तरह कदम बढ़ाए,
धड़कनों ने सेकंड की सुई की तरह होश गंवाए।
कंधे पर एक बैग लिए बाहर निकले,
बेटे ने बैग थाम कर कहा- पापा चलें।
गाड़ी में बैठते ही
पिता का दिल सुन्न सा पड़ गया,
बेटा बोला - आप समझ सकते हैं
कर्ज बहुत बढ़ गया।
घर बेचना ही पड़ा और ये नया घर छोटा है,
अलग से आपका कमरा न बन पाएगा,
पूरा दिन क्या करेंगें,
यहां आपका मन न लग पाएगा।
गाड़ी रुकी, बेटे ने पिता का बैग संभाला,
पिता ने यादों का संदूक खंगाला।
कभी तेरे स्कूल के पहले कदम,
मैंनें तेरा साथ निभाया,
आज इस आश्रम में पहुंचाकर
तूने सारा कर्ज चुकाया।
कल घड़ी बेकार हुई
आज मैं बेकार हो गया।
तू समझदार ऐसा क्या हुआ
मैं तो घर से बाहर हो गया।
आँखें गीली थी पर मुस्कुरा कर कहा,
तुझे देर हो रही होगी अब तू जा।
कभी कभी फोन करके
हाल चाल बताते रहना,
कभी समय मिले तो,
घड़ी दो घड़ी, बेटा, मिलने आते रहना।