दीया जलता रहा
दीया जलता रहा
शायद दूर हो जाए धरा का हर अँधियारा,
कण कण में आज हो शायद खूब उजियारा।
एक आश यही लेकर जला था वह मन में,
रात भर जलता रहा वो दीया घर आंगन में।
हर तूफान को झेलता हुआ जलता रहा वह,
हर जलन शिद्दत से सहन करता रहा वह।
मानव कल्याण की करता रात भर वो प्रार्थना,
रात रात भर जलता, जन कल्याण की थी भावना।
कभी कभार वह अपनी जलन में काँप भी उठता,
तिमिर संग रात भर भीषण युद्ध लड़ता रहता।
मानों कुछ कह रही हो धरा से तड़पती लौ उसकी,
भरता था बीच बीच में उत्ताप में वो करुण सिसकी।
सब ने उसका कुछ घंटों का प्रकाश तो देख लिया,
पर उसकी तड़प से तड़पा न धरा पर एक भी हिया।
पर उसका भी तो था शायद जिद्दी सा एक अंतर्मन,
तम पे ज्योत का फहरा उठा कुछ घंटों तक परचम।
पर इस दीप की यह महत्ता सिर्फ एक दिन की क्यूँ?
दीवाली की अगली रात फिर से यूँ घोर अंधेरा क्यूँ?
आज जो दीवाली गई, गूँज उठ दीये के मन में सवाल,
न मिटा मन का अंधेरा, हुआ दीये को इसका मलाल।
हर प्रार्थना उसकी निर्बल हुई, हर साधना हो गई विफल,
साथ जो छूट गया सबका, ह्रदय दीये का हुआ विह्वल।
फिर शुरू हुई उसकी प्रतीक्षा, अगले वर्ष की दीवाली की,
खुश हुआ हर दीया, चाह जगी मन में फिर प्रकाश पर्व की।
यह आश ही तो है, जो देती है इस जीवन को आधार,
वरना कहाँ बदल सका दीया, हमारा आपस का व्यवहार?
रात भर रो रो कर वह, जिसके लिए यूँ रोता ही रहा,
वह इन्सान कुछ घंटों बाद, रात भर बस सोता ही रहा।
भूल गया वह दीये का त्याग, भूला दी दीये की तड़प,
जलता रहा दीया रात भर, न थी इन्सान को भनक।
उसे तो दीवाली मनानी थी, दीया तो था सिर्फ माध्यम,
दीवाली मनाकर सो गया, न सुन सका दीये का क्रंदन।
