क्या पाया मैंने
क्या पाया मैंने
कुछ खो कर
ये बताना शायद
जरूरी न हो
आज दर्पण में तन्हा हूं
नीर को नयन भी ठौर नहीं देते
नीर सी नयनों से गिर गयी
जो खुद को नहीं देख सके आइने मैं
उन संग रही सदा
अरे
उनके तो अंदाज निराले
हाथों की लकीरों में
क्या खोजूं उसको
जो विधि ने रचा नहीं
सिंदूर और बिंदी में
फर्क तो होता है
सुनो
आजाद कर दो उन परिंदों को
जिनको कैद कर बैठे हो
मेघ देखूं ,जल देखूं,दर्पण देखूं
हाथों के कंगन खनकते, संवरते, और टूट जाते
सुनानी थी अपनी कहानी
मेरा तो भाग ही जोगन सा
मेरे श्याम सुंन्दर
जिसमें तुम हो कर भी नहीं हो
और जग कहता तुम्हे
हारे का सहारा
आज तोड दूं बंध जनमों के
और प्रेम का ग्रंथ रच दूं
कर दूं नयनों का नीर
अंजुलि पर तेरी विसर्जन
कर लूं तेरा वरण
मन में एहसास हैं
आ जाओ प्रियतम
प्रतीक्षा तेरी
कुछ ने खेल खेला
कुछ ने वचन दिया
दो नावों में नाविक
संतुलन कैसे रखे
वो भी जब जल की दो धारायें
पनघट पर बैठी हूं
प्यास खुद पानी हो गयी।
