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Damyanti Bhatt

Classics Others

4  

Damyanti Bhatt

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Untitled

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मैंने नहीं देखा कभी

अपने गांव में

कितनी डोलियाँ विदा हुई

कितनी बहुओं की देहरी पूजा हुई

तब ऐसी थी मेरी मां

आज जैसी है

नामकरण की दावत हो

पंगत मैं बैठ कर भोजन खाना 

मुझे याद नहीं


मां का एक कमरा

उसी मैं रसोई, पूजाघर

आगन्तुकों का द्वारासत

भूरी भैंस, धौली गाय

सब मुझे याद आते हैं


एक एक से इक्कीस का

सपना पूरा हुआ

आज घर का आंगन छोटा हो गया


बुनियाद हिलाने पर लगे रहे

पर वो तो बाप की थी चेली


जैसे जंग लग गया घरों की

सांकलों पर

वैसे उसकी हड्डियों पर भी


उस गांव की

कोई मीठी याद नहीं आती

न किसी का आशीर्वाद


तब भी हम ही थे

अब भी हम ही हैं

पाटी पर घोटा लगाते

रिंगाल की कलम बनाते


पर हंसते, खिलखिलाते

कभी गयी नहीं 

नहीं खेले खेल कभी


मृत आत्माओं के गांव में रहते रहते

शून्य हो गयी थी मेरी संवेदना


जिसके सम्मान को

पग पग चोट पहुँचाते

वो तो हिमालय की बेटी थी

जब अहंकार हिमालय से टकराया

तो वो डरी नहीं


उसके भुजदंडों मैं दुर्गा देखी

चौके पर अन्नपूर्णा


दो और दो से चार कांधे

उठायेंगे गृहस्थी का भार

उस आंगन की

पठाल उठा ले गया कोई अपना

आंगन तक आने की

गैरों की हिम्मत नहीं होती


उसी को प्रेम करती है मां

आज भी

उसी का फोन मिलाती

खट्टी मीठी लेकर मन

बहलाती मेरे ही हैं


कब अक्ल आयेगी उसे

कब समझेगी वो

वो कुछ कर नहीं सकती अब

बूढ़ी हो गयी वो

पर मां तो मां होती

उसकी उम्र नहीं होती


मेरी मां

कुछ शिव जैसी ही है

जिसने जीवन भर

उस गांव मैं

ठोकर, तिरस्कार, भूख, अपमान

और सौतिया ढाह का

विष पान किया


वो अजर हो गयी

शिव जैसा

उसको छोटी सोच ने

हमेशा कैद करना चाहा

पर उसकी

हस्ती

उन तमाम 

गिरे विचारों पर


आज भी चाहते हैं वो लोग

कि हम उससे रिश्ते सुधारें

पर चाहत तो देखो

शुरूआत 

मेरी मां की तरफ से हो


बाबा भी स्वीकार चुके हैं

खटकने लगा था सबकी आंखों में

जब खुद के लिए जीना शुरू किया

इतना सरल नहीं है

महामानव बरहते


आंखों मैं आंसू रहते

महसूस किया हर रिश्ते को

अमानुषों की आंखों में

न तो शर्म होती

न पानी


जो है, जैसा है

उसी मैं मगन रहो


तेज उजाले भी

इंसान को अंधा बना देते



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