श्रीमद्भागवत -१५९; देवासुर संग्राम की समाप्ति
श्रीमद्भागवत -१५९; देवासुर संग्राम की समाप्ति
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे
इन्द्रादि देवगण तब दैत्यों पर
भगवान् की कृपा पाकर वे।
इंद्र ने बलि से कहा
माया की बड़ी चालें चलीं तुमने
सिर धड़ से अलग किये देता हूँ
मैं तुम्हारा अपने वज्र से।
बलि ने कहा, हे इंद्र
जो लोग युद्ध हैं करते
अपने कर्मों के अनुसार ही
काल शक्ति की प्रेरणा से।
उन्हें जीत मिले या हार मिले
यश मिले या अपयश मिले
अथवा मृत्यु मिलती ही है
अनिभिज्ञ हो तुम इस तत्व से।
इस जगत को ज्ञानीजन
आधीन समझकर वो काल के
विजय पर हर्ष न करें
अपकीर्ति, मृत्यु का न शोक करें वे।
शुकदेव जी कहें कि जब बलि ने
इस प्रकार फटकारा इंद्र को
तो इंद्र थे कुछ झेंप गए
वाणों से भी मारा बलि ने उनको।
वज्र से प्रहार किया इंद्र ने
बलि विमान सहित नीचे गिरे
बलि का एक मित्र जम्भासुर
खड़ा हो गया इंद्र के सामने।
गदा से प्रहार किया ऐरावत पर
ऐरावत मूर्छित हो गया
इंद्र का सारथि मातलि तब
हजार घोड़ों का रथ ले आया।
सवार हो गए इंद्र रथ पर
जम्भ ने त्रिशूल चलाया मातलि पर
वज्र से जम्भ का सिर काट दिया
इंद्र ने तब क्रोधित होकर।
जम्भासुर की मृत्यु का
समाचार जब दिया नारद ने
नमुचि, बल, पाक भाई बंधू उसके
पहुँच गए थे रणभूमि में।
वाणों की वर्षा कर दी इंद्र पर
हजार घोड़ों को घायल कर दिया
मातलि भी घायल हो गया
रथ और इंद्र को वाणों से ढक दिया।
थोड़ी देर बाद फिर इंद्र
वहां से निकलकर बाहर आ गए
देखें सेना को रोंद डाला है
उनके प्रबल शत्रुओं ने।
बल और पाक का सिर काट लिया
तब उन्होंने अपने वज्र से
भाईओं का मरा देखकर
त्रिशूल चलाया इंद्र पर नमुचि ने।
इंद्र ने उस त्रिशूल के
आकाश में ही टुकड़े कर दिए
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उसकी गर्दन पर प्रहार किया
तब इंद्र ने अपने वज्र से।
पर नमुचि को उस वज्र से
खरोंच तक भी न आ सकी
यह देखकर सोचें इंद्र कि
नमुचि इससे मरा क्यों नहीं।
सोचें कि इसी वज्र से मैंने
पहाड़ों के पांखें काट दिए थे
वृत्रासुर को भी इससे मारा
और कई असुर भी मार दिए थे।
मेरे प्रहार करने पर भी ये वज्र
तुच्छ असुर को मार न सका
अब मैं इस वज्र को
अंगीकार नहीं कर सकता ।
जब इंद्र ऐसे विषाद करने लगे
आकाशवाणी हुई तभी वहां ये
यह दानव न मरे गीली से
न मरता सूखी वस्तु से।
इसे मैं वर ये दे चूका हूँ
कि सूखी या गीली वास्तु से
होगी नहीं मृत्यु तुम्हारी
और कोई उपाय तुम सोचो इसलिए।
एकाग्रता से इंद्र सोचें जब
उन्हें ये उपाय सूझा कि
समुन्द्र का फेन जो है वो
सूखा भी है, और गीला भी।
इंद्र ने फिर समुन्द्र के फेन से
नमुचि का था सिर काट लिया
इधर ब्रह्मा जी ने देखा कि
दानवों का सर्वथा नाश हो रहा।
तब उन्होंने नारद जी को
पास था भेजा देवताओं के
देवताओं को रोक दिया था
लड़ने से वहां नारद जी ने ।
नारद कहें, कृपा से भगवान् की
अमृत प्राप्त कर लिया आपने
आप की अभिवृद्धि की है
कृपाकर इन लक्ष्मी जी ने।
इसलिए बंद करो युद्ध ये
देवता सब तब मान गए थे
युद्ध बंद कर दिया उन्होंने
और सभी स्वर्गलोक चले गए।
सम्मति से श्री नारद जी की
बचे हुए वहां थे दैत्य जो
बलि को अस्ताचल ले गए
वज्र की चोट से मरे हुए वो।
संजीवनी विद्या से शुक्राचार्य ने
जीवित कर दिया उन असुरों को
जिनके अंग सब कटे नहीं थे
और जिवा दिया था बलि को।
स्पर्श करते ही शुक्राचार्य के
इन्द्रियों में चेतना आ गयी
किसी प्रकार का खेद नहीं था
यशस्वी बलि को पराजित होकर भी!