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Ajay Singla

Classics

5  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२८५ः शिवजी का संकट मोचन

श्रीमद्भागवत -२८५ः शिवजी का संकट मोचन

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राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन

शंकर ने त्याग किया समस्त भोगों का

परंतु देवता, असुर और मनुष्य

जो करते उनकी उपासना।


देखा गया है कि वो प्रायः ही

धनी, भोगसंपन्न ही होते

और भगवान विष्णु लक्ष्मी पति है

पर उनकी उपासना करने वाले।


वो प्रायः बहुत धनी और

भोग सम्पन्न नही होते हैं

इसलिए संदेह हो रहा

मुझे भी इस विषय में।


दोनों प्रभु त्याग और भोग की

दृष्टि से विरूद्ध हैं एक दूसरे के

परंतु इनके स्वरूप के विपरीत

फल मिलते उपासकों को उनके।


त्यागी की उपासना से भोग और

त्याग, लक्ष्मीपति की उपासना से

कैसे मिलता है, संदेह मुझे

जानना चाहता ये मैं आपसे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

शिवजी सदा शक्ति से युक्त रहें

आदि गुणों से युक्त वे

और अधिष्ठाता अहंकार के।


दस इंद्रियाँ, पाँच महाभूत और मन

सोलह विकार इस अहंकार के

समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति होती

इनके अधिष्ठाताओं की उपासना करने से।


परंतु परीक्षित, भगवान श्री हरि

प्रकृति से परे, गुणरहित वे

स्वयं पुरुषोत्तम, सर्वज्ञ हैं

साक्षी सबके अन्त करणों के।


जो उनका भजन करता है

स्वयं भी गुणातीत हो जाता

कृष्ण ने युधिष्ठिर के यज्ञ में जब

विविध धर्मों का वर्णन किया था।


उसे सुन तुम्हारे दादा युधिष्ठिर ने

यही प्रश्न किया था उनसे

प्रसन्नता पूर्वक उत्तर देते हुए

कृष्ण ने कहा था उनसे।


“ राजन, जिसपर मैं कृपा करता हूँ

सारा धन छीन लेता उसका

सगे सम्बन्धी छोड़ देते उसे

और जब वो निर्धन हो जाता।


धन के लिए वो फिर उद्योग करे

निष्फल जब हो प्रयत्न ये उसका

बार बार असफल होने से मन

धन कमाने से विरक्त हो उसका।


दुखी हो उधर से मुँहमोड़ ले

आश्रय ले मेरे भक्तों का

मेल जोल करे उनसे, तब उस पर

अपनी कृपा की मैं वर्षा करता।


परब्रह्म की प्राप्ति हो उसको

पर बहुत कठिन है आराधना मेरी

इसलिए मुझे छोड़ आराधना करते

लोग सामान्य देवताओं की।


दूसरे देवता आशुतोष हैं

पिघल जाते हैं झटपट वे

और अपने भक्तों को

जल्दी हैं लक्ष्मी वो दे देते।


प्रमादी और उन्मत्त हो जाते

उसे पाकर और वो अपने

वरदानी देवता को भुला दें

उनका तिरस्कार कर बैठते वे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

ब्रह्मा, विष्णु, महादेव ये तीनों

वरदान देने में समर्थ पर

ब्रह्मा, महादेव प्रसन्न शीघ्र हों।


शीघ्र ही वे शाप भी देते

परंतु विष्णु नही हैं वैसे

महात्मा लोग इस विषय में

प्राचीन इतिहास एक कहा करते।


एक बार वृकासुर को वर देकर

भगवान शंकर संकट में पड़ गए

एक बार वृकासुर कहीं जा रहा

नारद जी को देखा उसने।


उसने पूछा “ तीनों देवताओं में

झटपट प्रसन्न कौन है होता “

नारद जी ने कहा कि तुम

भगवान शंकर की करो आराधना।


बहुत जल्दी मनोरथ पूरा करें

थोड़े से गुणों से प्रसन्न हो जाते

और अपराध करने से थोड़ा भी

क्रोध भी तुरंत कर बैठें।


शंकर की कुछ स्तुतियाँ ही की थीं

रावण और वाणासुर ने

अतुलनीय ऐश्वर्या दे दिया

उसी से प्रसन्न होकर उन्हें।


बाद में रावण ने कैलाश को

उठाने से और बाणासुर की

नगर की रक्षा लेने से वे

बहुत संकट में पड़ गए थे।


नारद जी का उपदेश सुनकर तब

आराधना करने लगा शंकर की वो

शरीर का मांस काट काटकर

अग्नि में हवन करने लगा वो।


छ दिन तक जब दर्शन ना हुए

सातवें दिन तब फिर उसने

मस्तक कुल्हाड़े से काटना चाहा तब

भगवान शीघ्र प्रकट हो गए।


अग्निदेव समानलग रहे वे

गला काटने से रोक लिया उसे

उनका स्पर्श पाते ही सब अंग

वृकासुर के पूर्ण हो गए।


भगवान शंकर ने कहा, वृतासुर

तुमको वर मैं देना चाहता

मनचाहा वर माँग लो मुझसे “

वृकासुर ने तब ये कहा।


“ जिसके सिर पर हाथ मैं रख दूँ

वह मर जाए उसी समय “

उसकी ये याचना सुनकर शंकर जी

पहले तो कुछ अनमने हुए।


फिर हंसकर कह दिया उन्होंने।

अच्छा फिर ऐसा ही हो

ऐसा वरदान दे उन्होंने जैसे

सांप को अमृत पिला दिया हो।


भगवान शंकर के ऐसा कहने पर

वृता सुर के मन में हुई लालसा

कि मैं पार्वती जी को ही हर लूँ

इसके लिए वो उद्योग करने लगा।


शंकर जी के वर की परीक्षा के लिए

हाथ रखने लगा वो सर पर उनके

अब तो शंकर भयभीत हो गए

वरदान से, अपने ही दिए हुए।


वह उनका पीछा करने लगा

शंकर जी कांपते हुए भागे

पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के

अंत तक वो दौड़ते गए।


बड़े बड़े देवता भी इस

संकट को टाल ना सके

अंत में शंकर जी विष्णु के

वैकुण्ठधाम में पहुँच गए थे।


भगवान ने देखा शंकर जी

पड़े हुए बड़े संकट में

योग़माया से ब्रह्मचारी बनकर तब

वृकासुर की और जाने लगे।


वृकासुर को देखकर उन्होंने

बड़ी नम्रता से झुककर प्रणाम किया

कहें ” शकुनिनंदन वृकासुर जी

बहुत थक गए आप, लग रहा।


तनिक विश्राम कर कीजिए, देखिए

यह शरीर जड़ सभी सुखों की

हमें अधिक कष्ट ना देना चाहिए

इससे ही कामनाएँ पूर्ण होतीं।


आप समर्थ हैं सब प्रकार से

इस समय क्या करना चाहते

यदि मेरे सुनने योग्य बात हो

आप मुझे अवश्य बतलाइए।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

अमृत बरस रहा प्रभु के शब्दों से

वृतासुर ने बतलाया तपस्या से

शंकर जी से उन्हें वर मिला जैसे।


ब्रह्मचारी वेशधारी भगवान ने कहा

“ अगर यही बात है तब तो भाई

उनकी बात का विश्वास ना करो

क्या आप ये जानते नही ?


कि वह तो दक्ष के शाप से

पिशाच भाव को प्राप्त हो गया

आजकल तो प्रेत पिशाचों का

ये शंकर सम्राट हो गया।


विश्वास कर लेते इतनी छोटी बातों पर

इतने बड़े होकर भी आप जो

और जगदगुरु जो मानते उनको

बातों पर उनकी विश्वास करते हो।


तो झटपट हाथ अपने सर पर

रखकर आप परीक्षा कर लीजिए

और यदि शंकर की बात तब

असत्य निकले तो उसे मार दीजिए।


जिससे कि फिर कभी भी वह

मूढ़, ऐसी बात ना कर सके

परीक्षित, भगवान मोहित करके कई

मीठी बातें कर रहे उससे।


इससे विवेक बुद्धि जाती रही उसकी

और तब उस दुर्बुद्धि ने

भूलकर हाथ रख दिया

अपने ही सर पर उसने।


उसी क्षण उसका सिर फट गया

देवता जय जयकार करने लगे

ऋषि, पित्तर प्रसन्न हुए और शंकर

विकट संकट से मुक्त हो गए।


भगवान पुरुषोत्तम ने शंकर से कहा

“ देवाधिदेव ! बड़े हर्ष की बात ये

कि दुष्ट को नष्ट कर दिया

उसके ही खुद के पापों ने।


परमेश्वर ! भला कौन सा प्राणी है

अपराध करके महापुरुषों का जो

कुशल से रह सकता है

और फिर इस पापी ने तो।


अपराध किया आप विश्वेश्वर का

तो सकुशल कैसे था रह सकता ये “

भगवान अनन्त शक्ति के समुंदर

मन और वाणी की सीमा से परे।


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