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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२८४ः वेद स्तुति

श्रीमद्भागवत -२८४ः वेद स्तुति

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राजा परीक्षित ने पूछा भगवन

भगवान कार्य और क़र्म से परे

तीनों गुण उनमें हैं ही नहीं

सत्व, रज और तम ये ।


दूसरी और विषय, गुण ही हैं

समस्त श्रुतियाँ का, तो फिर कैसे

निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन वो करतीं

किस प्रकार इस स्थिति में ।


क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप तो

परे है उनकी पहुँच से

मैं हूँ ये जानना चाहता

ये सब आप मुझे समझाइए ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

भगवान गुणों के निधान हैं

स्पष्टतः सगुण का ही

श्रुतियाँ ये निरूपण करती हैं ।


परंतु विचार करने पर उनका

तात्पर्य निकलता निर्गुण ही

विचार करने के लिए ही भगवान ने

बुद्धि, इंद्रियाँ, मन, प्राणों की सृष्टि की ।


काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष का

इनके द्वारा अर्जन कर सकते

प्राणों के द्वारा जीवन धारण

इंद्रियों के द्वारा ग्रंथ श्रवण करें वे ।


मन के द्वारा मनन और

निश्चय करने पर बुद्धि के द्वारा

श्रुतियों के तात्पर्य निर्गुण स्वरूप का

साक्षात्कार है हो सकता ।


इसलिए श्रुतियाँ हैं जो

प्रतिपादन करें सगुण रूप का जो

ऐसा करने पर भी श्रुतियाँ

निर्गुण परक ही हैं वो तो ।


उपनिषदों का यही स्वरूप है

सनकादि ऋषियों ने धारण किया उसे

मनुष्य जो श्रद्धा पूर्वक धारण करें

परमात्मा प्राप्त हो जाए उसे ।


इस विषय में गाथा एक है

नारद और नारायण का संवाद ये

एक बार देवर्षि नारद

बद्रिका आश्रम गए थे ।


नारायण लेटे हुए वहाँ

सिद्ध, ऋषियों के बीच में

जो तुम मुझसे पूछ रहे हो

नारद जी ने पूछा था उन्हें ।


नारायण जी ने भरी सभा में

उत्तर दिया उनके प्रश्न का

उनको एक थी कथा सुनाई

भगवान नारायण ने ये कहा ।


सनक, सनंदन, सनातन आदि ऋषियों का 

एक बार ब्रह्मसत्र हुआ था

तुम श्वेतद्वीप गए हुए उस समय

दर्शन करने अनिरुद्ध मुनि का ।


बड़ी उत्कृष्ट चर्चा हुई थी

ब्रह्म के सम्बंध में वहाँ

ये जो तुमने मुझसे पूछा

वहाँ भी ये प्रश्न उपस्थित हुआ ।


सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार

चारों भाई भंडार ज्ञान के

शत्रु, मित्र और उदासीन एक हैं

उन भाइयों की दृष्टि में ।


उन लोगों ने अपने में से

सनंदन को वक्ता बना दिया

शेष भाई सुनने की इच्छासे

सबके साथ बैठ गए वहाँ ।


सनंदन बोले “ जब परमात्मा

रहते प्रलय के अंत में

अपनी शक्तियों और जगत को

लीन करके अपने आप में ।


श्रुतियाँ तब इनको जगातीं

प्रतिपादन करने वाले वचनों से

कहतीं, आप तो सर्वश्रेष्ठ हैं

पूर्ण हैं समस्त ऐश्वर्यों से ।


यद्यपि हम समर्थ नही हैं

आपका स्वरूपतः वर्णन करने में

परंतु जगत की सृष्टि करने को

माया से सगुण आप जब हो जाते ।


आपका वर्णन करने को

समर्थ तब हो जातीं हम भी

इसमें संदेह नही कि इंद्रादि का वर्णन

किया जाता हमारे द्वारा ही ।


परंतु हमारे सभी मंत्र आपका

ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं

क्योंकि जब सारा जगत ना रहे

आप तब भी बने रहते हैं ।


जगत की उत्पत्ति और प्रलय

होती है ये आप से ही

आप एकरूप निर्विकार हैं, इसलिए

देवताओं का वर्णन, आपका वर्णन ही ।


इसलिए हम जिस नाम का या

जिस रूप का भी वर्णन करें

वही वर्णन हो जाता है

नाम और रूप का आपके ।


त्रिगुणात्मक जगत ये कल्पना मात्र ही

और केवल यही ही नही

जगत से पृथक प्रतीत होता जो

कल्पना मात्र है वो पुरुष भी ।


आत्मा से कल्पित ये जगत

आत्मा से ही व्याप्त ये 

इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष

आत्मरूप ही मानते हैं इसे ।


आपको सबका आधार मानते जो

और आपका भजन सेवन हैं करते

वो पुरुष मृत्यु पर भी

विजय प्राप्त हैं कर लेते ।


जो लोग आपसे विमुख हैं

कितने बड़े विद्वान भी हों तो

आप उन सब को श्रुतियों से 

पशुओं के समानबांध लेते हो ।


इसके विपरीत जिन लोगों ने

प्रेम सम्बंध जोड़ा आपसे

ना केवल अपने आप को

दूसरों को भी पवित्र कर देते वो ।


प्रभो, आप स्वयंप्रकाश हैं

आप ही परम सत्य हैं

सबसे सम होने के कारणआपका

ना पराया और ना कोई अपना है ।


जैसे समुद्र में नदियाँ और

मधु में पुष्पों के रस समा जाते

आपमें ही समा जाते हैं

वैसे ही सब के सब वे ।


भगवन, सभी जीव भटक रहे

अपनी अपनी समझ के भ्रम में

अपने को आपसे पृथक मानकर

चक्करकाटें जन्म मृत्यु के ।


आप ही तो छुड़ाने वाले इन्हें

जन्म मृत्यु के चक्कर से

आप अखण्ड आत्मास्वरूप हैं

आत्मा आप शरणागतों के ।


संसार की सभी वस्तुएँ

विनाशी हैं स्वभाव से ही

मटियामेट हो जाने वालीं

एक ना एक दिन ये सभी ।


वर्णित जगत ये सर्वथा मिथ्या है 

नासमझ ही सत्य मानें इसको

माया से मोहित हुआ चित

वृत्तियों, इंद्रियों में फँस जाता वो ।


इंद्रियों को तृप्त करने में लगे रहें 

विषयों से विरक्त नही होते जो

जीवन में और उसके बाद भी

दुःख भोगना पड़ता उनको ।


भगवन, आपके वास्तविक स्वरूप को

जानने वाले पुरुष हैं जो

पुण्य और पाप कर्मों का फल

सुख दुःख ना भोगना पड़ता उनको ।


आपके स्वरूप का ज्ञान ना हुआ जिसे

वो भी यदि आपकी कथा से

हृदय में बैठा लेता आपको 

मुक्त हो जाता वो सुख दुःख से ।


परंतु इन ज्ञानी प्रेमियों को छोड़कर

और सभी शास्त्र बंधन में

तथा उनका उल्लंघन करने पर 

दुर्गति को प्राप्त होते वे ।


भगवन, स्वर्गादि लोकों के अधिपति

लोकपाल इंद्र, ब्रह्मा भी

पार ना पा सकते हैं

थाह ना पा सकें वो आपकी ।


धूल के कण जितने आकाश में

उड़ते रहते हैं वे, वैसे ही

असंख्य ब्रह्माण्ड आपमें घूमते

सीमा फिर मिले कैसे आपकी ।


हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूप का

साक्षात्कार नही कर सकतीं

भगवान सनंदन ये कह चुके तो

सबने फिर वहाँ उनकी पूजा की ।


“नारद ! सनकादि ऋषि सृष्टि के

आरम्भ में उत्पन्न हुए थे

ये सबके पूर्वज हैं

पुराणों का सब निचोड़ लिया इन्होंने ।


देवर्षि, तुम भी उनके समान ही

ब्रह्मा के मानस पुत्र हो

इसलिए उनकी ज्ञान सम्मति के

तुम भी उत्तराधिकारी हो ।


इस ब्रह्मविद्या को धारण करो तुम

सवछंद हो पृथ्वी पर विचरण करो

श्रद्धा से धारण किया इसे नारद ने

नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं वो तो ।


देवर्षि ने फिर कहा, हे भगवन

आप सच्चिदानन्द भगवान श्री कृष्ण

आपकी कीर्ति बहुत पवित्र है

आपको नमस्कार करते हम ।


परीक्षित, इसके बाद नारद जी

नमस्कार कर भगवान नारायण को

मेरे पिता श्री कृष्ण द्वैपाएमान

व्यास जी के पास गए वो ।


भगवान वेदव्यास ने उनका

यथायोग्य सत्कार किया था

भगवान नारायण जी का उपदेश फिर

नारद जी ने उन्हें सुना दिया ।


परीक्षित, जीव और प्रकृति के

स्वामी हैं भगवान कृष्ण ही

माया से मुक्त हो जाता

जीव भगवान को पाकर ही ।




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