श्रीमद्भागवत -१५३; देवताओं द्वारा ब्रह्मा जी के पास जाना
श्रीमद्भागवत -१५३; देवताओं द्वारा ब्रह्मा जी के पास जाना


शुकदेव जी ने कहा परीक्षित अब
रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो
पांचवें मनु का नाम रैवत था
चौथे मनु तामस के भाई थे वो।
अर्जुन, बलि, विन्धय आदि
उन मनु के कई पुत्र थे
तब इंद्र का नाम विभु था
भूतरय आदि प्रधानगण देवताओं के ।
हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊधर्वबाहु आदि
सप्तऋषि थे उस मन्वन्तर में
उनमें शुभ्र ऋषि की पत्नी विकुण्ठा
वैकुण्ठ भगवन जन्में थे जिनसे ।
प्रार्थना से लक्ष्मी देवी की
और प्रसन्न करने के लिए उन्हें
सभी धामों में श्रेष्ठ धाम जो
वैकुण्ठ की रचना की थी उन्होंने ।
छठे मनु चक्षुपुत्र चाक्षुष थे
पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि पुत्र उनके
इंद्र का नाम मन्त्रद्रुम
आप्य आदि प्रधान देवगन थे ।
इस मन्वन्तर के सप्तऋषि
हविष्मान और वीरक आदि
भगवान् ने जन्म लिया था
सम्भूति से जो वैराज की पत्नी ।
अजित नाम का अंशावतार ये
समुंद्रमंथन करके उन्होंने ही
अमृत पिलाया देवताओं को तथा
धारण किया कच्छप अवतार भी ।
कच्छप बन वो आधार बने
मंदराचल की मथानी का
परीक्षित पूछें भगवान् ने कैसे
मंथन किया क्षीरसागर का ।
किस कारण और किस उद्देश्य से
कच्छप रूप धारण किया था
समुन्द्र से और क्या क्या निकला
देवताओं को अमृत कैसे मिला था ।
भगवान की ये लीला अद्भुत है
हमें सुनाईये आप कृपाकर
शुकदेव जी ने फिर प्रारम्भ कर दिया
समुन्द्र मंथन की कथा का वर्णन ।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
जिस समय की बात है ये
देवताओं को पराजित किया था
युद्ध में उस समय असुरों ने ।
बहुत से मारे गए रणभूमि में
और दुर्वाशा के शाप से
तीनों लोकों के साथ स्वयं
इंद्र भी श्री हीन हो गए ।
यहाँ तक कि यज्ञादि धर्म जो
उन कर्मों का भी लोप हो गया
ये दुर्दशा देख इंद्र, वरुण आदि ने
आपस में सोच विचार किया ।
किसी निश्चय पर वो जब न पहुंचे तो
ब्रह्मा जी की सभा में गए
अपनी सारी प्रस्थिति को कहा
वहां ब्रह्मा जी की सेवा में ।
ब्रह्मा जी ने स्वयं भी देखा
देवता शक्तिहीन हो गए
और दूसरी तरफ असुर सब
इसके विपरीत हैं फल फूल रहे ।
भगवान का स्मरण किया ब्रह्मा ने
सम्बोधित कर कहा देवताओं को
मेरे और समस्त लोकों के स्वामी उस
अविनाशी पुरुष की शरण ग्रहण करो ।
सत्वगुण को स्वीकारा हुआ है
प्रनियों के कल्याण को उन्होंने इस समय
जगत की स्थिति और रक्षा का
अवसर है इसलिए यह ।
वो देवताओं के प्रिय हैं
और प्रिय हैं देवता उनके
इस लिए हम निजजनों का
अवश्य ही कल्याण करेंगे ।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
ये कह देवताओं को साथ ले
भगवान अजित के निजधाम
वैकुण्ठ को ब्रह्मा जी चले गए ।
तमोमई प्रकृति से परे धाम ये
वहां उन्हें कुछ दिखाई न पड़ा
भगवान की स्तुति तब करें ब्रह्मा
एकाग्र मन से, वेदवाणी द्वारा ।
ब्रह्मा जी बोले, हे भगवन
आप निर्विकार, सत्य, अनंत हैं
आदिपुरुष, अखण्ड, अतर्क्य
चरणों में आपके नमस्कार है ।
जरायुज, अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज
प्राणी पृथ्वी पर चार प्रकार के
यह जो परम शक्तिशाली जल
है उनका ही वीर्य ये ।
उत्पन्न हो, बढ़ते, जीवित रहते हैं
इसी से, लोक, लोकपाल जो
चन्द्रमाँ उन प्रभु का मन है
देवताओं का अन्न, बल, आयु वो ।
वही वृक्षों का सम्राट और
प्रजा की वृद्धि करने वाला
ऐसे प्रभु हम पर प्रसन्न हों
जिन्होंने ऐसे मन को स्वीकारा ।
अग्नि मुख, सूर्य नेत्र हैं
उनके प्राण से वायु प्रकट हुआ
कान से दिशाएं, इन्द्रियागोलक ह्रदय से
नाभि से आकाश उत्पन्न हुआ ।
बल से इंद्र, प्रसन्नता से देवगन
बुद्धि से ब्रह्मा, शंकर क्रोध से
प्रजापति उत्पन्न हुए लिंग से जिनके
हम सब नमस्कार करते उन्हें ।
वो भगवान् हम पर प्रसन्न हों
कृपाकर दर्शन कराइये अपना
आराधना उन योगेश्वर भगवान की
प्रनिओं की और अपनी भी आराधना।