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Yogesh Kanava

Classics

5.0  

Yogesh Kanava

Classics

देवव्रत

देवव्रत

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ले सैनिकों को संग देवव्रत हुआ भीर 

मौन थी कालिंदी और मौन थे दोनों तीर 


सबको शायद भान था देवव्रत के आने का 

कौन दुस्साहस करता मौत से टकराने का 


परशुराम शिष्य आज किन्तु विचलित था 

कहाँ खोजे किधर जाये मन भ्रमित था 


तत्क्षण ही याद उसको कुछ आ गया था 

वायु प्रवाह में गंध कस्तूरी वो पा गया था 


कस्तूरी गंध यही तो ऋषि ने बतलाया था 

पवन झोँका भी तो उस दिश ही आया था 


चल पड़ा देवव्रत लिए काफिला उसी ओर 

पवन प्रवाह बता रहा था वो कस्तूरी छोर


ऐड लगायी अश्व को तुरंग दिया दौड़ 

निकला युवराज काफिला दिया छोड़ 


एक योजन पार जब वो आ गया

गंधश्रोत कस्तूरी का वो पा गया 


खींची लगाम गंगापुत्र ने अश्व रोक लिया

झाँका चंहु दिश और देख सब टोह लिया 


है कोई गंधर्वी राक्षसी या मायावी 

और मेरे संग भी माँ गंगा धारावी 


निशंक गंगापुत्र उस ओर बस चला 

थी वो सांवली शांत और मुख भला


तुम जो भी हो मायावी गंधर्वी या मानवी 

आज सम्मुख हो तुम बस इस काल की 


मैं गंगापुत्र देवव्रत कुरु वंश  का भाल हूँ 

अपना परिचय दो नहीं तो मैं पूरा काल हूँ 


आर्यपुत्र मुझको ना यूँ शक्ति दिखलाओ 

क्या सेवा करूँ तनिक ये तो बतलाओ 


एक हाथ वक्ष पर एक हाथ थी पतवार 

रति की सहचरी थी तप्तयौवन अश्व सवार


ओ निशाथ पुत्री क्या तुम ही हो वो गंधकाली 

जिसने कर दी आँखे महाराज की मतवाली 


तुम किसकी बात करते हो हाँ राजन एक आया था 

कुरुवंश का ही सूर्य था शांतनु नाम अपना बताया था 


हाँ मैं उसी कुरुवंशी शांतनु का पुत्र 

देवव्रत नाम है और हूँ मैं गंगापुत्र 


माते  !  नतमस्तक है आज यह गंगापुत्र 

कुरुवंश और पिता की  खुशियों का हो सूत्र 


अपने चरणों में मेरा नमन स्वीकार करो 

मात बनो मेरी और वंश का उद्धार करो 


उठो वत्स ! मुझको तो किंचित भी इंकार नहीं 

किन्तु राजन को कदाचित मेरी बात स्वीकार नहीं 


मैं जान सकूँ बात युवराज को अधिकार नहीं ?

हो पिता को संताप तो पुत्र को धिक्कार वहीँ 


होगा तुम्हे स्वीकार कैसे राजन जिसको सह ना पाया 

भरा रहा संताप में राजन इसीलिए तुमसे ना कह पाया 


यूँ ना पहेलियाँ अब और बुझाओ 

माते अपनी बात अब मुझे बताओ 


जानना चाहते हो तो सुनो मेरी ये आशंका 

तेरे रहते मेरे पुत्र का बज पायेगा राजडंका 


मेरा पुत्र बने कुरुवंश का उत्तराधिकारी 

बने युवराज ना हो कभी कोई प्रतिकारी 


बस इतनी सी बात माते संताप छोडो 

हिये धीर धरो और कुरुवंश से नाता जोड़ो 


ना मैं प्रतिद्वंद्वी  ना मैं हूँ प्रतिकारी 

तेरा पुत्र ही बनेगा कुरु राज्याधिकारी 


यह वचन है मेरा राज ना मांगूगा 

कुरुवंश की रक्षा में सदैव जागूँगा 


तुम वीर हो वचन की लाज निभाओगे 

किन्तु बिना राज्य के कैसे रह पाओगे 


चलो तुम रह भी लोगे सह भी जाओगे 

किन्तु अपने पुत्र को तुम कैसे रोक पाओगे 


मेरा पुत्र यह कदाचित सत्य होगा 

निर्णय मुझको भी अब लेना होगा 


तभी उठा गंगापुत्र लिया निर्णय कठोर 

डोली थी धरती डोल गया गगन चहुँ ओर 


माते ! तेरा संशय कर देता हूँ समाप्त 

मैं जनता हूँ अब होगा यह सब पर्याप्त 


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करता हूँ आज भीष्म प्रतिज्ञा मैं 

तो जीवनभर ब्रह्मचारी रहूँगा मैं 


कम्पित कम्पित थी धरती कम्पित क्षितिज छोर 

भीष्म यह प्रतिज्ञा कर सकता था भला कोई और 


लिया युवराज मुकुट चरणों में कर दिया अर्पित 

माते गंगा को मैं ना कर पाउँगा कभी लज्जित 


सदा रहूँगा सिंहासन का मैं बन प्रहरी 

भोर हो रात हो  या फिर हो दोपहरी 


ले प्रतिज्ञा देवव्रत भीष्म कहलाया 

व्याकुल मन को बस गंगा ने सहलाया 


देख देवव्रत का त्याग कालिंदी भी रोई थी 

इधर गंधिके उसकी भीष्म प्रतिज्ञा में खोयी थी


हो गयी थी आश्वस्त निर्भय मन स्वराज को 

मन उसका तृप्त था देख पूरण अपने काज को 


सुन प्रतिज्ञा सत्यवती हुयी निशंक 

किन्तु यही था कुरुवंश में प्रथम डंक 


मेरा पुत्र होगा राजा मन में ही मुस्काई थी 

किन्तु ख़ुशी उसने बाहर  ना दिखलाई थी


माते ! विलम्ब ना करो चलने का संधान करो 

सारथी ले माते को  शीघ्र अब प्रस्थान करो 


सारथी ने अश्वों को अब रथ में जोड़ दिया 

खींच लगाम अब रथ का मुंह मोड़ दिया 


इधर राजा मन विचलित था वासवी प्यार को 

कैसे दूर हो तम  कैसे भगाये अन्धकार को 


तभी द्वारपाल ने आकर राजन को बतलाया 

युवराज का दूत आपके दर्शन को है आया 


राजन को किंचित भी ना ऐसा भान था 

गंध कस्तूरी  है राह में उसको ना ज्ञान था 


मन आशंका से उसका भर गया था 

अनहोनी से भीतर तक वो डर  गया था 


युवराज का दूत भला क्या सन्देश लाया होगा 

हो सकता है नया राज्य उपहार भिजवाया होगा 


द्वारपाल अब तनिक ना तुम देर लगाओ 

जाओ और युवराज दूत को लेकर आओ 


राजा के मन को विश्वास ना आया था 

दूत ने वासवी का आगमन बतलाया था 


क्या सच में गंधिके  मेरी रानी बन जाएगी 

संभव हुआ ये कैसे वो ही सब बतलायेगी 


किन्तु शर्त उसकी जो मैंने ना मानी  थी 

बने युवराज पुत्र मन में उसने ठानी थी 


क्या वो मान गयी अपनी शर्त को छोड़ 

या देवव्रत ने मन उसका दिया मोड़ 


सिंहासन छोड़ अब राजन आ गया द्वार 

भूल युवराज को वो वासवी को रहा निहार 


तात! युवराज का प्रणाम स्वीकार करो 

माता वासवी को लाया हूँ अंगीकार करो 


अमात्य बतलाओ यह कैसे चमत्कार हुआ 

वासवी को शांतनु कैसे यूँ स्वीकार हुआ 


अमात्य ने भीष्म प्रतिज्ञा का विवरण बताया 

डोली थी धरती राजन को भी चक्कर आया 


मैं जानता हूँ गंगा पुत्र बहुत समर्थ है 

युवराज ना हो किन्तु यह बहुत अनर्थ है 


अब प्रतिज्ञाबद्ध हूँ अब ना कुछ हो पायेगा 

सिंहासन को अब नया युवराज मिल जायेगा 


उपकृत राजन युवराज को क्या बोलता 

क्या कहे कैसे कहे कैसे वो मुँह खोलता 


प्रतिज्ञाबद्ध  देवव्रत अब भीष्म बन गया था 

त्याग से उसके पिता का भी सीना तन गया था 


राजन को भी थी अपने पुरखों की आन 

इच्छा मृत्यु का देवव्रत को दिया वरदान 


राजन ने राजपुरोहित को तब बुलवाया 

कस्तूरीगंधा  से तब अपना ब्याह रचाया 


अब निषाथ कन्या निषाथ कन्या कहाँ थी 

हस्तिनापुर की साम्राज्ञी अब पटरानी वहां थी 


समय का भी घूमा यह कैसा पहिया था 

युवराज नहीं अब  वो रक्षासूत्र रचैया था। 



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