श्रीमद्भागवत-२४३;उद्धव जी की व्रज यात्रा
श्रीमद्भागवत-२४३;उद्धव जी की व्रज यात्रा
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
उद्धव जी एक उत्तम पुरुष थे
साक्षात वृहस्पति जी के शिष्य
और परम बुद्धिमान वे ।
भगवान के प्यारे सखा, मंत्री भी
एक दिन भगवान ने अपने भक्त का
हाथ अपने हाथ में लेकर
उनसे मधुर वाणी में ये कहा ।
उद्धव, तुम व्रज में जाओ
नन्दबाबा, यशोदा मैया वहाँ
जाकर उनको आनंदित करो
और वहाँ जो हैं गोपियाँ ।
मेरे विरह में वे दुखी हो रहीं
संदेश सुनाकर उनको मेरा
उस वेदना से मुक्त करो उनको
मन उनका मुझमें ही लगा रहता ।
उनके प्राण, उनका जीवन और
सर्वस्व मैं ही हूँ उनका
अपने पति पुत्र आदि को
उन्होंने मेरे लिए छोड़ दिया ।
प्यारा, प्रियतम, आत्मा मान लिया
बुद्धि से भी उन्होंने मुझे अपना
मेरा व्रत है जो सब छोड़े मेरे लिए
भरण पोषण मैं करता उनका ।
मेरे यहाँ चले आने से
वे मुझे दूरस्थ मानतीं
मेरा स्मरण करके मोहित हों
बार बार मूर्छित हो जातीं ।
विरह की व्यथा से विह्वल हो रहीं
प्रतिक्षण उत्कंठित रहतीं मेरे लिए
अपने प्राणों को रख रहीं गोपियाँ
बड़े ही कष्ट और यत्न से ।
‘ मैं आऊँगा ‘, मैंने कहा था
वो ही आधार उनके जीवन का
उद्धव, और तो क्या कहूँ मैं
मैं ही हूँ उनकी आत्मा ।
गोपियाँ नित्य निरन्तर ही
तन्मय रहतीं हैं मुझमें
श्री शुकदेव जी क़हतें हैं परीक्षित
भगवान की बात सुनकर उद्धव ने ।
नंदगाँव में जाने के लिए
संदेश लेकर स्वामी का अपने
रथ मंगाया और सवार हो
व्रज के लिए वे चल पड़े ।
संध्यापन के बाद व्रज में पहुँचे वो
गोएँ वापिस आ रहीं जंगल से
उनके रथ को ढक लिया था
धूल उठ रही जो उनके खुरों से ।
गाय दूहने की ध्वनि और
बाँसुरियों की मधुर टेक से
अपूर्व शोभा हो रही व्रज की
कृष्ण चरित्रों का सभी गान कर रहे ।
उद्धव जी व्रज में पहुँचे तो उन्हें
मिलकर नन्दबाबा प्रसन्न हुए
गले लगाकर उनका सम्मान किया
मानो स्वयं श्री कृष्ण हों आए ।
नन्दबाबा ने उनसे पूछा
हमारे सखा वासुदेव जी
कुशल तो हैं ना और कुशल हैं
उनके स्वजन तथा पुत्र आदि ।
श्री कृष्ण क्या कभी कभी
याद करते हैं हम लोगों को
ये उनकी माँ, गोप, गोपियाँ
सर्वस्व मानें सब के सब उनको ।
ये व्रज है, उन्ही की गोएँ ये
वृंदावन और गिरिराज ये
क्या इन सबका स्मरण भी
कभी कभी करते हैं वे ।
उद्धव, यह तो बतलाओ ज़रा कि
गोविंद हमें देखने के लिए
क्या एक बार फिर से वे
हमसे मिलने गोकुल आएँगे ।
उद्धव जी, हृदय उदार कृष्ण का
उनकी शक्ति तो अनंत है
एक नही कई बार उन्होंने
हमारे प्राणों की रक्षा की है ।
चरित्र कृष्ण का, तिरछी चितवन उनकी
उन्मुक्त हँसी, मधुर भाषण वो
हम स्मरण करते रहते हैं
मन तन्मय उसमें जाता हो ।
हमसे कोई काम ना हो अब
और हम जब देखें ये
कि यह तो वही नदी है
कृष्ण क्रीड़ा थे करते जिसमें ।
यह वही गिरिराज है जिसको
हाथ पर उठा लिया था उन्होंने
ये वही वन के प्रदेश हैं
बांसुरी बजाते थे जिसमें वे ।
और ये वो ही स्थान है
जहां सखाओं संग खेल खेलते
और उनके चरम चिन्ह जो
वो
अब तक भी नहीं हैं मिटे ।
उनको देखकर ही हमारा
मन कृष्णमय हो जाता है
पर इसमें संदेह नही कि
उनके बारे में जो कहा जाता है ।
स्वयं भगवान गर्गाचार्य ने
उनके बारे में कहा था मुझसे
कि देव शिरोमणि कृष्ण बलराम हैं
और वो यहाँ हैं प्रकट हुए ।
देवताओं का कोई बड़ा प्रयोजन
सिद्ध करने के लिए ही
बलवान कंस को मारा उन्होंने
बस खेल खेल में ही ।
बलशाली कुवलियपीड और
मारा अनेक पहलवानों को भी
गिरिराज को उठाया हाथ से
दैत्यों को मार डाला कितने ही ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
हृदय जो था नन्दबाबा का
वो भगवान श्री कृष्ण के
अनुराग रंग में रंग़ा हुआ था ।
उनकी लीलाओं का स्मरण कर
प्रेम की बाढ़ आ गयी उनमें
विह्वल हो गए, गला रुंध गया
और बिल्कुल चुप हो गए वे ।
यशोदा जी भी वहीं बैठकर
नन्दबाबा की बातें सुन रहीं
श्री कृष्ण की लीलाएँ सुनकर
नेत्रों में बाढ़ आ गयी आंसुओं की ।
कृष्ण के प्रति अनुराग देखकर
नन्दबाबा, यशोदा के हृदय में
उद्धव आनन्दमय हो गए
उन दोनों से ये कहने लगे ।
उद्धव जी कहें, इसमें संदेह नही
कि अत्यन्त भाग्यवान आप हैं
क्योंकि हृदय में आपके उनके लिए
वात्सल्यस्नेह, पुत्रकाम है ।
समस्त जगत को बनाने वाले
भगवान, ज्ञान देने वाले वो
बलराम कृष्ण तो पुराण पुरुष हैं
जीवन दान दें सभी शरीरों को ।
शुद्ध मन से मृत्यु के समय
जो एक क्षण भी उनमें लगा दे
कर्मबन्धन से छूट जाता है
परम गति वो प्राप्त कर ले ।
अपने भक्तों की अभिलाषा
को पूर्ण करने के लिए
और भार उतारने को पृथ्वी का
इस धरती पर जन्म हैं लेते ।
सुदृढ़ वात्सल्य भाव है
उनके प्रति आप दोनों का
फिर आप दोनों के लिए अब
कौन सा कर्म शेष रह जाता ।
भगवान कृष्ण थोड़े ही दिनों में
मिलने को आप दोनों और सब से
और आनंदित करने आपको
आएँगे इस ब्रजमण्डल में ।
पारण भाग्यशाली आप हैं
कृष्ण को अपने पास देखोगे
वैसे भी विराजमान वो सदा
समस्त प्राणियों के हृदय में ।
सबमें वे और सबके प्रति समान वे
वो अजन्मा फिर भी उन्होंने
शरीर धारण किया लीला से
साधुओं के परित्राण के लिए ।
आप दोनों के ही पुत्र नही वो
सब प्राणियों के आत्मा, स्वामी भी
वास्तव में तो वे सब में ही हैं
परमार्थ सत्य हैं वे ही ।
परीक्षित, उद्धव और नन्दबाबा को
बात करते हुए रात बीत गयी
कुछ रात शेष रहने पर
गोपियाँ भी उठ गयीं व्रज की ।
झाड़ बुहार कर दही मथने लगीं
अत्यन्त शोभा हो रही उनकी
भगवान कृष्ण के मंगलमय
चरित्रों का वो गान कर रहीं ।
सूर्यउदय हुआ, उन्होंने देखा कि
दरवाज़े पर नन्दबाबा के
एक सोने का रथ खड़ा है
पूछने लगीं वे एक दूसरे से ।
‘ किसका ये रथ है सखी’
किसी गोपी ने तब कहा
‘ कंस का प्रायोजन सिद्ध करने को
अक्रूर फिर तो नही आ गया ।
हमारे प्यारे शामसुन्दर को
वो मथुरा ले गया था ‘
‘ उसके आने का अब क्या प्रायोजन’
दूसरी गोपी ने तब कहा ।
व्रज वासिनी गोपियाँ सभी
इस प्रकार थीं बात कर रहीं
कि उसी समय वहाँ पर
आ पहुँचे कृष्ण सखा उद्धव जी ।