श्रीमद्भागवत १४५; ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम
श्रीमद्भागवत १४५; ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम


नारद जी कहें, युधिष्ठर
ब्रह्मचारी जो गुरुकुल में निवास करे
इन्द्रियों को वश में रखे वो
दास समान छोटा अपने को माने ।
सुदृढ़ अनुराग रखे गुरु चरणों में
उनके हित के कार्य करता रहे
सांयकाल और प्रात:काल
गुरु, अग्नि, सूर्य की उपासना करे ।
गायत्री का जाप करता हुआ
संध्या करे दोनों समय की
वेदों का स्वाध्याय करे
गुरु के अनुशासन में रहकर ही ।
पाठ के प्रारम्भ और अंत में
प्रणाम करे उनके चरणों में
मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड
कमंडलु और यज्ञोपवीत धारण करे ।
प्रात:काल और सायंकाल में
मांगकर लाये भिक्षा वो
गुरु की आज्ञा से ही भोजन करे
न आज्ञा दें तो उपवास करे वो ।
शील की रक्षा करे अपने
इन्द्रियों को वश में रखे
स्त्रियों की चर्चा से भी अलग रहे
ब्रह्चर्य का व्रत लिया हो जिसने ।
इन्द्रियां बड़ी बलवान हैं
मन को अपनी और खींच हैं लेती
स्त्रियां अग्नि के समान हैं
और पुरुष घी के घड़े समान ही ।
अपनी कन्या के साथ भी
एकांत में तो नहीं रहना चाहिए
जब तक इन्द्रियां वश में न हों
भोग्यबुद्धि होती ही स्त्री संग में ।
ये सब शील रक्षा आदि गुण
विहित हैं गृहस्थ और सन्यासियों के लिए भी
मांस, मद्य से सम्बन्ध न रखे
ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करे जो भी ।
ब्रह्मचारी उबटन न लगाए
आभूषणों का त्याग कर दे
गुरुकुल में ही निवास करे
वेद, उपनिष्दों का अध्ययन करे ।
फिर अगर सामर्थ्य हो तो
गुरु को मुंहमांगी दक्षिणा दे
फिर उन्ही की आज्ञा से प्रवेश करे
गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रमों में ।
या अगर वो रहना चाहे तो
आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करे
और जो हैं सभी आत्माओं में
सदा उन हरि को भजना चाहिए ।
अब नियम बतलाता हूँ मैं
क्या हैं वानप्रस्थ आश्रम के
जोती हुई भूमि में उत्पन्न
अन्न नहीं खाना चाहिए उसे ।
बिन जोती हुई भूमि का अन्न भी
यदि असमय से पका हो
वो भी नहीं खाना चाहिए
खाये सूर्य से पके फलों को ।
आग में पकाया भी न खाये
खाये कंदमूल फल आदि ही वो
चारु, पुरोडाश का हवन करे
अपने आप पैदा हुआ जो ।
अग्निहोत्र की अग्नि की रक्षा के लिए
घर, पर्णकुटी, गुफा मैं आश्रय ले
शीत, वायु, अग्नि, वर्षा सहन करे
धारण करे सिर पर जटाएं ।
केश, रोम, नख एवं दाढ़ी मूंछ
न कटवाए जो वानप्रस्थ आश्रमी हो
शरीर से मैल भी न अलग करे
वल्कल वस्त्र, दण्ड, कमण्डल साथ हों ।
पास रखे अग्निहोत्र की सामग्रीयां
बारह, आठ, चार, दो या एक वर्ष तक
वानप्रस्थ के नियमों का पालन करे
वो कर सकता हो इनमें से जितने वर्ष ।
जब रोग या बुढ़ापे के कारण
पूरा न कर सके अपने कर्म को
समर्थ न रहे वेदांत विचार करने की भी
अनशन अदि व्रत तब करे वो ।
मैं, मेरा, मेरेपन का त्याग कर
आकाश में लगाए शरीर के छिद्रकाशों को
प्राणों को वायु में लगाए
अग्नि में लगाए गर्मी को ।
कफ,पीव को लीन करे जल में
हड्डी आदि को पृथ्वी में
वाणी और उसके कर्म भाषण को
अधिष्ठाता देवता अग्नि में ।
हाथ और कलाकौशल को इंद्र में
चरण और उसकी गति को विष्णु में
रति और उपस्थ को प्रजापति में
पायु और मलोत्सर्ग को लीन करे मृत्यु में ।
श्रोत्र और शब्दों को दिशाओं में
स्पर्श और त्वचा को वायु में
नेत्र सहित रूप को ज्योति में
रस और रसेन्द्रियों को जल में लीन करे ।
घ्राणेन्द्रियाँ को पृथ्वी में लीन करे
मन को लीन करे चन्द्रमाँ में
बुद्धि को ब्रह्मा, अहंकार रूद्र में
चित को लीन करे क्षेत्रज्ञ में ।
लीन करे परब्रह्म में जीव को
साथ ही पृथ्वी को जल में
जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में
वायु को आकाश में, आकाश को अहंकार में ।
अहंकार को महतत्व में
महतत्व को अव्यक्त में
और अव्यक्त को परमात्मा में लय कर दे
स्थित हो जाये अद्वित्य भाव से ।