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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत १४५; ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम

श्रीमद्भागवत १४५; ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम

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नारद जी कहें, युधिष्ठर 

ब्रह्मचारी जो गुरुकुल में निवास करे 

इन्द्रियों को वश में रखे वो 

दास समान छोटा अपने को माने । 


सुदृढ़ अनुराग रखे गुरु चरणों में 

उनके हित के कार्य करता रहे 

सांयकाल और प्रात:काल 

गुरु, अग्नि, सूर्य की उपासना करे । 


गायत्री का जाप करता हुआ 

संध्या करे दोनों समय की 

वेदों का स्वाध्याय करे 

गुरु के अनुशासन में रहकर ही । 


पाठ के प्रारम्भ और अंत में 

प्रणाम करे उनके चरणों में 

मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड 

कमंडलु और यज्ञोपवीत धारण करे । 


प्रात:काल और सायंकाल में 

मांगकर लाये भिक्षा वो 

गुरु की आज्ञा से ही भोजन करे 

न आज्ञा दें तो उपवास करे वो । 


शील की रक्षा करे अपने 

इन्द्रियों को वश में रखे 

स्त्रियों की चर्चा से भी अलग रहे 

ब्रह्चर्य का व्रत लिया हो जिसने । 


इन्द्रियां बड़ी बलवान हैं 

मन को अपनी और खींच हैं लेती 

स्त्रियां अग्नि के समान हैं 

और पुरुष घी के घड़े समान ही । 


अपनी कन्या के साथ भी 

एकांत में तो नहीं रहना चाहिए 

जब तक इन्द्रियां वश में न हों 

भोग्यबुद्धि होती ही स्त्री संग में । 


ये सब शील रक्षा आदि गुण 

विहित हैं गृहस्थ और सन्यासियों के लिए भी 

मांस, मद्य से सम्बन्ध न रखे 

ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करे जो भी । 


ब्रह्मचारी उबटन न लगाए 

आभूषणों का त्याग कर दे 

गुरुकुल में ही निवास करे 

वेद, उपनिष्दों का अध्ययन करे । 


फिर अगर सामर्थ्य हो तो 

गुरु को मुंहमांगी दक्षिणा दे 

फिर उन्ही की आज्ञा से प्रवेश करे 

गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रमों में । 


या अगर वो रहना चाहे तो 

आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करे 

और जो हैं सभी आत्माओं में 

सदा उन हरि को भजना चाहिए । 


अब नियम बतलाता हूँ मैं 

क्या हैं वानप्रस्थ आश्रम के 

जोती हुई भूमि में उत्पन्न 

अन्न नहीं खाना चाहिए उसे । 


बिन जोती हुई भूमि का अन्न भी 

यदि असमय से पका हो 

वो भी नहीं खाना चाहिए 

खाये सूर्य से पके फलों को । 


आग में पकाया भी न खाये 

खाये कंदमूल फल आदि ही वो 

चारु, पुरोडाश का हवन करे 

अपने आप पैदा हुआ जो । 


अग्निहोत्र की अग्नि की रक्षा के लिए 

घर, पर्णकुटी, गुफा मैं आश्रय ले 

शीत, वायु, अग्नि, वर्षा सहन करे 

धारण करे सिर पर जटाएं । 


केश, रोम, नख एवं दाढ़ी मूंछ 

न कटवाए जो वानप्रस्थ आश्रमी हो 

शरीर से मैल भी न अलग करे 

वल्कल वस्त्र, दण्ड, कमण्डल साथ हों । 


पास रखे अग्निहोत्र की सामग्रीयां 

बारह, आठ, चार, दो या एक वर्ष तक 

वानप्रस्थ के नियमों का पालन करे 

वो कर सकता हो इनमें से जितने वर्ष । 


जब रोग या बुढ़ापे के कारण 

पूरा न कर सके अपने कर्म को 

 समर्थ न रहे वेदांत विचार करने की भी 

अनशन अदि व्रत तब करे वो । 


मैं, मेरा, मेरेपन का त्याग कर 

आकाश में लगाए शरीर के छिद्रकाशों को 

प्राणों को वायु में लगाए 

अग्नि में लगाए गर्मी को । 


कफ,पीव को लीन करे जल में 

हड्डी आदि को पृथ्वी में 

वाणी और उसके कर्म भाषण को 

अधिष्ठाता देवता अग्नि में । 


हाथ और कलाकौशल को इंद्र में 

चरण और उसकी गति को विष्णु में 

रति और उपस्थ को प्रजापति में 

पायु और मलोत्सर्ग को लीन करे मृत्यु में । 


श्रोत्र और शब्दों को दिशाओं में 

स्पर्श और त्वचा को वायु में 

नेत्र सहित रूप को ज्योति में 

रस और रसेन्द्रियों को जल में लीन करे । 


घ्राणेन्द्रियाँ को पृथ्वी में लीन करे 

मन को लीन करे चन्द्रमाँ में 

बुद्धि को ब्रह्मा, अहंकार रूद्र में 

चित को लीन करे क्षेत्रज्ञ में । 


लीन करे परब्रह्म में जीव को 

 साथ ही पृथ्वी को जल में 

जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में 

वायु को आकाश में, आकाश को अहंकार में । 


अहंकार को महतत्व में 

महतत्व को अव्यक्त में 

और अव्यक्त को परमात्मा में लय कर दे 

स्थित हो जाये अद्वित्य भाव से । 



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