आंखों में
आंखों में
सपनों को भर कर आंखों में
रखा जब से
आंखें झपकना ही भूल गयी
सफर शुरू तो किया
वक्त ही ठहर गया
कितना सरल है
तन को सजा लेना
कठिन है
मन की धूल को हटा लेना
गुस्सा रही हमेशा
मन से बददुआ नहीं निकली
नींदे ले रखी मैंने उधार
छोड़ कर अनुराग
आंखें उनींदी
सिर झुकाये
उम्मीदों का दीप बुझ सा रहा
हंसी उड़ाई सबने मेरी
बड़े दिन हो गये खुल कर हंसे हुए
एक पतंगा ही हूं मैं
दीपक के आस पास
काम से जब घर लौटती
घरेलू सी महिला
लौटती थी
संग मैं शाम की तन्हाइयां
दिन भर की थकान
बच्चों जैसी भूख
इंतजार रहता
फिर अपनी किसी गलती पर,
जो कि कभी की ही नहीं
ममत्व और पौरुष के
गर्वीले प्रवचन कि
गांव की जैसी
गंवार
कहां खोल बैठी
जख्म मैं पागल
विदा करा रखा है मुझे
नमक के शहर।
धीरे धीरे मेरे पग चले
तेरे दर से
करार ले
बेकरार चले।
