इंसाफ़
इंसाफ़
मत निकला कर देर रात
सुनसान गलियों से रफ़ीक,
ये वो शहर है जहाँ वहशी
आबरू से खेला करते हैं।
कभी छे साल, कभी आठ साल,
कभी पन्द्रह तो कभी बीस,
कभी बाविस, कभी पच्चीस,
कभी सत्ताईस तो कभी तीस।
इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता
औरत की उम्र से
इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता
छह साल की मासूम से।
इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता,
औरत के रंग रूप से।
इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता
अंधेरे, या धूप से।
इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता अगर तुम
घर में अकेली कमाने वाली हो
इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता चाहे तुम
शादी कर ससुराल जाने वाली हो।
छह साल की बच्ची का
स्तन कहाँ होता है ?
पर इन वहशियों का भी
पवित्र मन कहाँ होता है।
कोई शराब के नशे में धुत्त,
तो कोई होश-ओ-हावास में,
हवस भरी होती है इन
हैवानों की श्वास में।
दस मिनट सिर्फ़ दस मिनट
या ज़्यादा से ज़्यादा पन्द्रह,
सोने के तराज़ू में तोले
जाने वाली लड़की
कौड़ियों की बन जाती है
ये वो शहर है जनाब
जहाँ कूकर्म से पहले,
उसकी गुहार नहीं सुनी जाती है।
सारे सपने, सारे ख़्वाब, सारी जिम्मेदारियाँ
पलक झपकते मिट्टी में मिल जाती हैं
होता तो कूकर्म एक के साथ है
रूह सारे शहर की हिल जाती है
बस फिर क्या, फिर अदालत में
सुनवाई चलती रहती है
पीड़िता और आरोपी दोनों की
उम्र बढ़ती रहती है
मुक़दमा कभी दस साल,
कभी बीस तो कभी तीस साल तक चलता है
अफ़सोस है कि मेरे शहर में एक
पीड़िता को इंसाफ़ नहीं मिलता है।