तलाक़
तलाक़
वो घर जहाँ तुम हर थोड़ी देर में मुझे पुकारा करती थी
वो कमरा जहाँ तुम मुझे बस मुस्कुराकर देखा करती थी
वो बिस्तर जहाँ हम एक दूजे के हो कर सो जाया करते थे
वो अलमारी जहाँ तुम्हारे ना जाने कितने कपड़े हुआ करते थे
तुम्हें फिर भी कम लगते थे, हैं ना ?
वो रसोई जहाँ तुम मेरे लिए खाना बनाया करती थी
ओर मैं हर सुबह हमारे लिए चाय बनाता था,
अदरक वाली, तुम्हें पसंद थी ना !
वो कभी तुम्हारा मुझसे किसी बात पर यूहिं झगड़ जाना
मेरा माफ़ी माँगना ओर तुम्हारा फिर मुझे गले लगाना
तो कभी किसी बात पर मेरा तुमसे रूठ जाना
तब भी मेरा ही माफ़ी माँगना और तुम्हें गले लगाना
कभी नहाने जाते वक़्त तुम कैसे 'तौलिया' बाहर भूल जाती थी
ओर फिर जब मैं 'तौलिया' देने आता,
तुम कैसे मुझे अपने पास खींच लेती थी
ये घर, ये कमरा सूना सूना सा लगता है आजकल
ना तुम्हारी यहाँ मुस्कुराहट है,
ना तुम मेरा नाम पुकारा करती हो
ये बिस्तर आज भी रातों को आवाज़
किया करता है मेरे करवट बदलने पर
अब इसे कैसे समझाऊँ कि मैं
आजकल अकेला सोया करता हूँ
ये पास रखी अलमारी को खोलने
पर भी अफ़सोस होने लगा है
तुम्हारे जिस्म की ख़ुशबू से महकते
कपड़े अब यहाँ नहीं हुआ करते हैं
अब रूखा-सूखा जैसा खाना बने,
मैं खा लिया करता हूँ
चाय भी आजकल बिना अदरक की पीता हूँ,
तुम्हारी याद आ जाती है वरना
झगड़ने को भी अब कोई है नहीं,
गले लगाने को भी अब मसनद ही है मेरे पास
तुम्हारे आने से ख़ुशी आयी थी,
एक अरसे तक चले बुरे हालात के बाद
मालूम ना था इतना कुछ बदल जाएगा,
एक छोटे से लफ़्ज़ 'तलाक़' के बाद।
