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Priyanka Jhawar

Abstract

4.9  

Priyanka Jhawar

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बचपन वाली होली

बचपन वाली होली

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846


अब होली पर कुछ करें ना करें,

जरूर याद करते हैं वह बचपन वाली होली।

वह घर, वह गली, वह मोहल्ला,

जहां निकलती थी खूब रंग बिरंगी टोली।


वह रंग-गुलाल-पिचकारी की दुकानें,

वह कवि सम्मेलन का हो हल्ला।

जाने कितने दिन पहले से ही,

सज़ने लगता था अपना वह मोहल्ला।


दिवाली में जो लोग घरों को,

लंबी-लंबी झालरों से सजाते थे।

होली में वो लोग घरों को,

बड़ी-बड़ी पन्नियों से छुपाते थे।


होली खेलना इतना आसान नहीं था,

करनी पड़ती थी बहुत तैयारी।

तैयारी तो अपनी जगह थी,

माननी पड़ती थी मम्मी की शर्तें ढेर सारी।


होली खेलनी है अगर,

तो पहले करना होगा होमवर्क पूरा।

मैं बाद में कुछ नहीं सुनूंगी,

अगर रह जाएगा कुछ भी अधूरा।


आपस में लड़ाई करना नहीं,

ढोलना नहीं ज़्यादा पानी।

पूरा दिन खेलते मत रहना,

नहीं चलेगी कोई मनमानी।


पुराने कपड़ों के पोटलों में से भी,

सबसे अच्छे निकाल कर थी देती।

इसीलिए शायद कहते हैं,

मम्मी तो आखिर मम्मी ही है होती।


रंग लगाने के पहले ही,

होती थी रंग निकालने की फ़िक्र।

लगा लेते थे, खूब सारा क्रीम

गालों पर और तेल बालों पर।


सुबह सुबह उठकर, बड़ों के साथ होली की पूजा करने जाना।

मिलता था बाहर का माहौल देखने को, पूजा तो होती थी एक बहाना।।


कभी और करे ना करे,

उस दिन तो करते थे जमकर मेहनत।

बड़े शौक से लेकर जाते थे,

पानी की भरी बाल्टीयां पहली

मंजिल से दूसरी मंजिल तक।


मजा़ ही कुछ और था,

मारने का लोगों पर पानी के गुब्बा़रे।

अगर नहीं हो लोग कोई,

तो भिगाओ खाली रोड़ को ही

चलाकर पिचकारी के फव्वारे।


उस दिन तो होती थी,

भाई-बहन में जमकर साझेदारी।

हो बाल्टी भरकर लाना या हो गुब्बारे फुलाना,

सारे काम होते थे मिलकर बारी-बारी।


होली की टोली के आने के पहले,

फुला कर रखते थे गुब्बा़रे ढेर सारे।

पहले से ही डिसाइड हो जाता था,

आधे मेरे हैं और आधे तेरे।


ऊपर से टोली पर गुब्बा़रों की

बौछार, हम करते थे जब।

नीचे से न जाने किन-किन चीजों

से वार, वह करते थे तब।


कुछ भी चीज फेंकते थे,

नहीं था कुछ ठिकाना टोली का।

छिलके टमाटर, बैंगन, चप्पल,

ऐसा रंग होता था होली का।


टोली वाले हाथों से नहीं,

तोपों से उड़ाते थे गुलाल।

उस दिन आसमान सिर्फ नीला नहीं,

होता था रंगबिरंगा हरा-पीला -गुलाबी-लाल।


होली खेलने के बाद, मम्मी के

संग करवाते थे सफाई।

और दादी के संग खाते थे,

श्रीखंड-मिस्सी पुड़ी-ठंडाई।


वह टोली, वह होली,

वह मोहल्ला, वह घर।

सब कुछ वही का वही है,

बस हम नहीं है मगर।


अभी भी मम्मी-पापा, कभी-कभी

वह टोली देखने जाते हैं।

और दूर यहां बैठे हमको,

वीडियो कॉल करके दिखाते हैं।


अब होली पर कुछ करें ना करें,

जरूर याद करते हैं वह बचपन वाली होली।

वह घर, वह गली, वह मोहल्ला,

जहां निकलती थी खूब रंग बिरंगी टोली।


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