मैं एक मौन हूँ.
मैं एक मौन हूँ.
मैं एक चोर हूँ,
मैं एक मौन हूँ.
आवाज़ को निगल लेता हूँ मैं.
रात को चोरियाँ करता हूँ,
दिन में तुम्हारी परछाई बन कर घूमता हूँ.
कई बार ऐसा हुआ है:
तपती धूप है,
कोई बूढ़ा बेतरह दयनीय दशा में भाग रहा है,
तुम अपने दुपहिए पर किसी दिशा मे भाग रहे हो.
वो दिख जाता है तुमको,
चंचल आँखे पहुँच जाती हैं वहाँ तक.
मालूम नहीं क्या अनुभूति होती है तुम्हें.
लेकिन अभिव्यक्त क्या करते हो तुम?
मौन!
रास्ते में मुरझाए पेड़ों को देखते हो तुम,
पर शब्दहीन!
कुछ बच्चे तुमको दिख जाते हैं सड़कों पर भीख माँगते हुए,
लेकिन तुम चुप!
तुम इबारत करते हो ,
बेहिसाब लिखते हो इनके बारे में
इनकी आरती उतारते हो,
लेकिन सड़क पर आते ही सब भूल जाते हो
सब कुछ कागज़ी?
निःशब्दता हमने आविष्कृत की ,
परिष्कृत की, व्यवह्रत की.
सदियों से इस अभिव्यक्ति पर हमारा अधिकार है!
पर यह समझ लेना चाहिए,
तुम्हारी पहचान सिर्फ़ और सिर्फ़ आवाज़ है,
तुम्हें ग्लानि होती है ,
शब्द हैं तुम्हारे पास.
तुम्हें अन्याय लगता है,
तुम शोर करो, तुम्हें हर्ष होता है ,
व्यक्त करो.
