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Alok Prakash

Tragedy

4  

Alok Prakash

Tragedy

शहर वापसी

शहर वापसी

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मैं अपने गाँव से मिलने गया था,

कुछ दस एक बरस बाद गया था।

मैं सिक्स लेन सड़क पर परेशान था,

मैं दस फीट की सड़क को ढूँढ रहा था।


ढूँढ रहा था मैं चाय की दुकान,

दूध और इलायची वाली चाय,

रंग वाली चाय।

पानी वाली कड़वी चाय से मैं उब चुका था,

पोखर और बाग देखने को तरस चुका था।


मैं फ्लाइओवर क्रॉस कर चुका था,

गाँव पीछे छूट चुका था।

मैनें एक यू टर्न लिया ,

अचानक हमारे बगीचों के रखवार

सलीम की नज़र मुझ पर पड़ी,

अब उसका घर हाइवे से सटा था,

कुछ उसकी ज़मीन हाइवे में समा गई थी।


उसने मुझे अपने घर के

अंदर आने को कहा,

जैसे ही मैं गाड़ी से उतरा,

हींग के छौंक की खुश्बू ने मुझे झकझोड़ा,

ये खुश्बू शायद जीरे और लहसुन की छौंक

के साए में गुम हो गया था।


सलीम आधी धोती कमर के नीचे

तक बांधता था, आधी सर पर बांधता था।

उसके बेटे अनवर ने कमर में लूँगी

बँधी हुई थी, सर पर टोपी पहना था।


अनवर की अम्मी ने ठीक वैसी साड़ी

बँधी थी जैसे मेरी माँ बाँधती है,

हाँ उसके पत्नी के लिवास और

मेरी बीवी के लिवास में बहुत फ़र्क था।

सलीम ने आग्रह किया,

बच्चा खाना खा लो फिर

साथ हवेली चलते हैं।


शायद उसे मालूम था अपने पुरखों की तरह

मैं उसे विजतीय नहीं समझता हूँ,

या शायाद उसने समझा की उसके

चौके से निकली छौंक की सुगंध मुझे भा गई।

उसका घर मिट्टी का था मन सोने का था।


उसके छोटे से घर के बरामदे

पर रखी चौकी पर मैं बैठ गया।

कुछ देर में मुझे चाय की खुश्बू आई,

अनवर की बेटी ने मेरे लिए चाय लाई,

उसके सर पर दुपट्टा था,

चेहरे पर नकाब कहीं नहीं था।


वो बतला रही थी , शालीनता आपके

लहजे में दिखता है, पहनावा तो दिखावा है।

चाय में दूध थी, इलायची थी,

और मेरी गाँव के मिट्टी की

खुश्बू में सराबोर अदरक थी।


खाने में वही सब कुछ था जो

मेरी दादी मेरे लिए बनती थी,

पीठाऱ में बैंगन लपेट कर भजिए तले गये थे,

पीली सरसों में पकी मछली थी,

हाँडी में उबली भात थी।


ना बिरयानी थी ना 'चूजे अँगारे' थे,

मालुम है मुझे ये खबर किसी

अखबार में नहीं छापेगी,

लेकिन ये एक क्रान्ति लानेवाली घटना थी।

सदियों हम साथ रहे लेकिन,

कभी एक दुसरे के घर खाना नहीं खाया,

अब हमारे बीच रोटी का रिशता हो गया था।


पहचाने सड़क पर आकर मैं निराश हुआ।

दुकानें सब उजड़ चुकी थी,

हाइवे ने दस फीट सड़क की

हरियाली लील कर ली थी।

बहुत सारे पेड़ कट चुके थे,

बहुत सारे तालब पाटे जा चुके थे।


वो लीची के बगीचे जिसे मेरे बाप ने

अपना पेट काट कर और सलीम ने

अपना खून जला कर आबाद किया था,

अपने मलिक को ढूँढ रहा था।


कभी मेरे घर के सामने

एक पोखर हुआ करती थी,

आज मेरे घर के बारमदे और

पोखर के बीच एक इमारत थी।

बरामदे में कुछ बच्चे खेल रहे थे।

कौन मलिक बने,

कौन मिट्टी छुए।


मुझे हरियाली पसंद है,

बगीचे से मिलने वाला धन पसंद है,

लेकिन मेहनत ?

मैं उलटे पाँव शहर वापस लौट आया।


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