मैं सिरफिरा हूं--दो शब्द
मैं सिरफिरा हूं--दो शब्द
यूं तो बचपन से अपनी भावनाओं को,
कागज के पन्नों को गोदता हुआ कुछ न कुछ लिखता था-
और कोई पढ़े या न पढ़े,
अपने लिखे को शब्दों को बड़े चाव से कई बार स्वयं ही पढ़ता था-
न मात्राओं का ज्ञान था और न ही शब्दों का चयन-
मानो चलता था पजामा के ऊपर टाई को पहन-
किसी की आंखों दर्द से गिरते हुए आंसुओं को,
आज भी अपनी उंगलियों से पौछ देता हूं-
जिंदगी दूसरे के इशारों पर नहीं
अपनी राह स्वयं बना कर चलने की सोच देता हूं-
मैं नेता नहीं हूं
जो वोट और नोट की खातिर,
अपना दिल, संबध और जमीर बेच देता हूं-
और न ही कथित संत महात्मा हूं
जो डरा कर स्वर्ग - नर्क के चक्कर से,
दूसरे की जेब से रूपये ऐठ लेता हूं-
न वह लेखक हूं
जो राज दरवार में बन कर भाडं गीत गाता है-
और न ही
दूसरे लाचार लेखक के भावों को,
अपना कह कर बाजार में बेच आता है-
जिंदगी जीने का यह फलसफा, तिकड़म
आज तक नही समझ पाया हूं-
इसलिये मुफलिसी के दौर से न निकल पाया हूं-
लेकिन मजे की बात न तब डरा था
और न अब तक डरा हूं-
लोग कहते हैं तो कहते रहें
मैं दिल की लिखता हूं शायद इसलिए उनकी नजरों में सिरफिरा हूं।
