रात और अकेलापन
रात और अकेलापन
रात के इस नीड़ में,
उठती मन की पीड़ में
मिलने के अहसास में होता अधीर मैं
बोझिल आंखो में स्वप्न न तैरते
जब प्यार के अहसास में, तू नही जो पास में,
भाव भी निस्तेज से, हो उद्देलित न कुछ बोलते
उमड़तेघुमड़ते कुछ भावों के बीच से
चांद के वक्ष पर, यादों के अक्स पर,
बस तेरी ही तश्वीर को सहेजते सहेजते
दिल की दीवार पर,
नाखूनों के वार से, अनजाने दर्द की टीस को उकेरते
मैं भी चुप, तुम भी चुप,
पर ये दिल की धड़कनें तो बोलती
आंखों की कोरों से, यादों की चुभन लिए
गीली गीली सी ढलकती हुई राजएदिल खोलती
कैसे कहूं इस मौन में, कौन तू कौन मैं,
पर कुछ रिश्ते जो बिन कहे बिखरते है व्योम में
जल जाता है बहुत कुछ धुंए के
बिना ही प्यार के इस होम में
रात के अंधकार के डसते सर्प से, अपने आप से करते विमर्श से
देखता हूं दूर से एक रोशनी सी क्षीण में
रात के इस नीड़ में,
उठती मन की पीड़ में
मिलने की तीव्रता में होता हूं अधीर मैं
संतरगी सपनों के बिखरते से रूप से
जलती हैं आशायें भी अब निराशा की धूप से
इंतजार के पल मुठ्ठियों से झर रहे
सूखे हुए फूल भी पतझड़ से बिखर रहे
मन भी शापित सा समय के ओहपोह से
दिल के बंधन में टूट रहे मोह से
इश्क के कठिन से पेपरों के प्रश्न रह गये अनुत्तरित से
शायद जीवन के पल हो गये शापित से
क्या मोहब्बत के इम्तिहान में न हुआ उत्तीर्ण मैं
रात के इस नीड़ में,
उठती मन की पीड़ में
मिलने की अहसास में होता हूं अधीर मैं।