तृप्ति की तलाश में--दो शब्द
तृप्ति की तलाश में--दो शब्द
तृप्ति की तलाश में
चाहतें लिए अतृप्त मन की भटकने-
खोजती सी भटकती रहीं, ढोती रहीं,
जब तलक जिंदगी रह गयी पलों में सिमटने-
अजीब है जिन्दगी की चाहतों की उलझनें-
ऊन के धागे से गुथती रहीं एक दूजे में,
गुजर गयी जिंदगी एक एक गांठ सुलझने-
चाहतों और आकांक्षाओं के परों पर
उड़ता रहा पंछी सा मन का चंचल जीव भी-
जब श्वास थी शेष थमा जरा नहीं
जब तलक न हुआ निर्जीव भी-
धड़कनें लिखती रही गाथा जिंदगी की-
पर शब्द सीमित थे यहाँ सिवा बंदगी की-
हर तरफ स्वार्थ के हस्ताक्षरों ने लिख दिया था भाग्य को-
कीचड़ में सने पंख न काट सके दुर्भाग्य को-
कौन सुनता है भला यहां पर सत्य के चीत्कार को-
द्रोपदी के वस्त्र हरण को करता है स्वीकार जो-
जहां पर स्त्रीत्व-लज्जा की कृत्रिम में ढाल में
पाच-पांच पतियों की पत्नी पांचाली बनी-
जहां सीता की पवित्रता लांछन से सनी-
कौन मानव, कौन दानव, यह परिभाषित करता कौन है-
प्रारब्ध लिखने वाला जब होता मौन है-
अब तो सोच भी गिरवी पड़ी-
अब चारों से गंध सी आती सड़ी-
राख के ढेर में शोले लगे हैं दहकने-
तृप्ति की तलाश में
चाहतें लिए अतृप्त मन की भटकने-
खोजती सी भटकती रहीं, ढोती रहीं
जब तलक जिंदगी रह गयी पलों में सिमटने-
अजीब है जिन्दगी की चाहतों की उलझनें-
