सफर-ए-मोहब्बत
सफर-ए-मोहब्बत
आगे चल रहा मैं,
पीछे छूट रहे यादें थे,
बस आँखों के पर्दो में,
उससे किये हुए वादे थे।
अपनी मंजिल को छोड़कर,
रास्ते की तलाश थी,
यह काया कुछ नहीं,
बस खड़ी ज़िंदा लाश थी।
उम्मीद तो की थी,
की वो मेरे साथ आएगी,
जीत कभी न कभी तो,
मेरे हाथ आएगी।
कौन जानता है,
ये वक़्त रुकेगा कब,
क्या बंद हो जाएगी साँसे,
सब्र नहीं होता अब।
अरमान तो दुनिया ने हमसे लगाये,
वरना हमने तो सिर्फ़ महफ़िल में गाने गाये।
तू मिलेगी एक दिन इस बात का अभिमान है,
रुक जाएगी यही आकर तू इस बात का गुमान है।
अंत में बस मैं और वो थी,
उसके लिए मोहब्बत इस कदर थी,
मैं महफ़िल का मुसाफ़िर था,
वो एक खुशनुमा सफर थी।
