पटरी किनारे बनी बस्तियां
पटरी किनारे बनी बस्तियां
देखो रेल की पटरी के किनारे बनी ये बस्तियां,
है उघड़े दरवाजे औ झांकती बंद खिड़कियां,
नंग धड़ंग बच्चों संग, रंग बिरंगी तितलियां,
कूड़े के ढेर पे ही सही, हैं बिंदास जिंदगियां।
बेढ़ब बेतरतीब कच्ची पक्की अधबनी झुग्गियां,
पाल रखे हैं कुत्ते बकरी और कुछ ने मुरगियां,
कुछ ढंकी टाट से कुछ पर हैं टीन की पट्टियां,
कुछ है बन चुकी कुछ पर अभी लगी है बल्लियां।
घूमते इधर और उधर लोटते पोटते कुत्ते सूअर,
थोड़ा उधर थोड़ा इधर, कीचड़ से हैं तर-बतर,
इन बस्तियों के खूब भीतर, पर जाओ जिधर,
हमारे शहरों से तो कम ही है यहां सिसकियां।
गुजरते हैं हम इधर से नाक-मुंह सिकोड़ कर,
सोचते, कपड़ों को थोड़ा ऊपर नीचे मोड़ कर,
रहते हैं लोग यहां पर कैसे शर्मो-हया छोड़कर,
बना करके बस्तियां कूड़े के ढेरों को तोड़कर।
खेलते हैं बच्चे गली में गिल्ली मारते डंडियां,
घूमते मस्त होके लोग ले गमछा पहने बंडियां,
कतार में भर रहे हैं पानी लेकर अपनी हंडियां,
कुछ औरतें छाप रही है गोबर से कंडे-कंडियां।
कुछ घरों में मंजिलें हैं दो और बनी है सीढ़ियां,
कईयों की गुजर गई हैं यहां कई सारी पीढ़ियां, <
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कहीं जल रहे चूल्हे, कहीं जल रही हैं बीड़ियां,
कुछ चल रहे बेफिक्र गाते गाने बजाते सीटियां।
मेहनत से हैं कुछ ने अपने झोपड़े डाले,
कुछ रहते हैं यहां करने को काम काले,
किसी को यहां खाने की रोटियों के लाले,
कोई तोड़ रहा है बटर चिकन के निवाले।
खाकी के लिए अड्डा जरायम है ये बस्तियां,
खादी के लिए कायम है ये चुनावी कश्तियां,
कुछ लफंगे भी घूमते यहां कसते फब्तियां,
कहीं तो बुझ गई कहीं जल रही है बत्तियां।
ये शहर सोचता इन्हें कि ये बदनुमा दाग हैं,
मानता है "प्रखर" ये जिंद-साज का जुदा राग हैं,
बाशिंदों के मुताबिक वो तो जिंदा आग हैं,
और ये सिर्फ बस्तियां नहीं जीवन बाग हैं।
कभी यहां गूंजती अजान है, कभी बजती घंटियां
कुछ पहने हैं हैट भी, कुछ पहनते रंगीन पगड़ियां,
कहीं लगे हैं झंडे हरे, कहीं सजी हैं केसरी झण्डियां,
रेल की खिड़की से दिखती यूं रंग बिरंगी ये बस्तियां।
गौर से देखो "प्रखर" तो, भले रंग बिरंगी बाहर से,
पर गरीबी के एक रंग से सनी हैं यहां जिंदगियां,
जिंदगी की रेल के सफ़र से जो होती हैं अनदेखी,
यही है वो रेल की पटरी के किनारे बनी बस्तियां।।।