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V. Aaradhyaa

Tragedy

5.0  

V. Aaradhyaa

Tragedy

आसमान कत्थई

आसमान कत्थई

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अब ना तो ये आसमान नीला है,

और ना तो ये बादल सफ़ेद,

ना हवा में कोई ताज़गी है,

ना ज़मीन पर कोई हरियाली,

ना कोई मकान दिखता है यहाँ,

ना कोई दूकान नज़र आती है,

ना किसी की आवाज़ सुनाई देती है,

ना कोई बात करते हुए नज़र आता है,

ना ही सूरज की रौशनी चमकती दिखती है,

ना ही पानी का कोई तालाब दिखाई देता है,

ना ही लोगों की चहल पहल,

ना ही गाड़ियों का शोर,

बस एक अजीब सी ख़ामोशी है यहाँ,

एक ठहरा हुआ समय हो जैसे,

एक बुरे स्वप्न के बाद अटकी हुई स्वाश सा,

जहाँ सिर्फ़ घुटन ही घुटन है,

रौशनी के नाम पर बस एक धुमैली सी लकीर है,

और हर तरफ़ फैला है धुआँ ही धुआँ,

बिखरी है राख ज़मीन के हर हिस्से में,

टूटा पड़ा है ईमारतों का ढाँचा,

मलबा ही मलबा दिख रहा है हर जगह,

ना सड़के बची हैं ना चौराहें,

भिन्न भिन्न प्रकार के सामान दिख रहें हैं,

टूटे बिखरे उथल पुथल,

बिजली के तार मलबे पर टूटे पड़े हैं,

और इस मंज़र में देखती हूँ जब गौर से,

तो लाशों का ढेर दबा है,

मलबे के नीचे,

राख़ से पुता हुआ,

सामान के बीच में फ़सा हुआ,

लाशें जो कभी इन्सान थी,

जिनका एक घर था, परिवार था,

ना अब इन्सान रहा,

ना ही घर,

ना ही सड़क बची,

ना ही शहर,

बस बचा है जो वो है –

मलबा,धुआँ,और राख़

ये ही देन है अहम् की,

परिणाम है लोभ का,

जहाँ कुछ क्षणों में ही,

ध्वस्त हो जाता है एक जीता हुआ शहर,

और उसमें दफ़न हो जाते हैँ,

कई सपने, कई अरमान,

कई जीवन जो जीना चाहते थे।


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