बौने झरोखे वाले शहर
बौने झरोखे वाले शहर
बड़े-बड़े दड़बों में, कंक्रीट के मलबों में,
बौने झरोखों में सजे, दो-चार गमलों में,
मुठ्ठी भर मिट्टी में, बांधते पौधों के पांव,
शहर में ढूंढते वो, बस एक बित्ता गांव।
गांव में रहे आगे, शहर में आ पछियाते,
बातें करें गांवों की, इंग्लिश में बतियाते,
भीड़ के सन्नाटे में खो खुद के नामोनिशां,
शहर चाहे रिश्तों की आवाजों का गांव।
आर्गेनिक कह करके वो घी-गुड़ खाते,
घर में साइकिल चला, हैं वज़न घटाते,
पैदल चलने को, वे नया रुतबा बताते,
शहर होना चाहे, कदमों में नपता गांव।
मुठ्ठी में करके दुनिया, इठलाते फिरते,
बस इशारों से, पल में मौसम बदलते,
बंद दीवारों में एसी से, ठिठुरें जो पांव,
शहर गर्माते, अपनाई से तपते ये गांव।
सपने खींचते, दिन रात आंखें भींचते,
सोते, जगते, बस उम्मीदों को सींचते,
बैठे "द चौपाल" में, सिकोड़कर पांव,
शहर में खोजते, वो बरगद वाली ठांव।
दिन ही दिन यहां, रातों का पता नहीं,
सपने बिखरे हरसू, नींदे खो गई कहीं,
उम्मीदें खींचते, रुके जब जीवन नांव,
शहर ढूंढे, भावना में हिलोरे लेते गांव।