आनंद अनिश्चितता का
आनंद अनिश्चितता का
जीवन की वो सांझ भी, हर सांझ सी निराली थी,
दूर नदी में बहती एक कश्ती देखी जो खाली थी।
मांझी से बच लहरों ने, शायद छुपके निकाली थी,
पहचान थी उसकी नदिया से, संग खेली खाली थी।
बिन मांझी के बेधड़क, नदिया में निकली जाती थी,
ऐसे ही अपनी नौका भी, मैंने जीवननद में डाली थी।
बहती नदी का ना ठिकाना, कहां ले जाने वाली थी,
नौका झूमे बिन मांझी के, अब तो हुई मतवाली थी।
अनिश्चितता का जग अनोखा, जहां वो रहने वाली थी,
पर उसे तो है भरोसा कभी तो, वो पार लगने वाली थी।
ना मांझी ना मुसाफ़िर, उसे ना सफर का ठिकाना,
बहती नदिया जहां ले जाए, उसे है उस पार जाना।
अब जानी कि दे थपेड़े, तब नदिया उसे बुलाती थी,
तब नासमझी में कश्ती सोंचे, नदी उसे सुलाती थी।
नासमझी में वो ये इशारे, कभी समझ ना पाती थी,
नदिया ने ही तो नौका, बचपन से गोद में पाली थी।
हमने भी कहां समझा, जिंदगी जो संकेत बताती थी,
नासमझी में बस ये माना कि जिंदगी हमें सताती थी।
बिन मांझी की कश्ती, नया जीवन आयाम दिखा था,
लो मजा अनिश्चितता का, शायद ये संदेश लिखा था।