मशीन वाली अम्मा
मशीन वाली अम्मा


भोर की किरणें बिखराकर
चम्पई रंग, छा जाती जब
नभ में परिंदे फड़फड़ाकर
उड़ जाते है जब नीड़ों से
दानों की तलाश में।
मन ललचाता सुबह
उन हवाओं में हरी दूब
की ओस भरी चादर पर
टहलने के लिए, शांत
प्रकृति के आगोश में ,
अपने आप से बतियाने
के लिए ,लेकिन कदम
ठिठक गए आज अचानक
उस जाने पहचाने मोड़
पर जब पड़ी निगाह उस
मासूम सी तस्वीर पर जो
बैठी थी सिकुड़ कर गली
के उस छोर पर, वक्त
की सताई हुई सी ।
महानगर की दुनिया से
निर्लिप्त, खुरदरे समतल
पत्थर पर, हाथों में लिए
सिलाई की मशीन ।
कपड़े सीने वाली अम्माँ
थी वो, पूरा मोहल्ला उसे
इसी नाम से जानता था,
मशीन वाली अम्माँ थी वो !!!!!
महानगर का वैभव ..
उसके लिए अंजान था,
सुविधाओं का जीवन
उसने कभी न देखा था,
पक्की छ्त की चाह..
उसने कभी न की थी,
पास ही के झोपड़ पट्टी में
वह रहती थी, पता
नहीं, वही उसका स्वर्ग
था.. या उसका नरक !!!
पूरा दिन सर को मशीन
पर झुकाए, सूखी क्षीण
फीकी मुस्कान लिए ,
निर्जीव सी आँखों में
दर्प की चमक लिए,
माथे पर उलझे बालों,
को झटकती हुई ,थकान
भूलकर सधी उँगलियाँ
हर दम चलाती हुई ।
चुपचाप सीती रहती थी
अंतस की पीड़ा को भेद,
अपनी ही शून्यता में,
अपनी ही एकाग्रता में
‘निर्विकार’, सिलाई वाली
अम्माँ थी वो पूरा मोहल्ला
उसे यही कहकर पुकारता था !!!!
सर पर फैलाई थी रंगीन
छतरी, जिसके अनगिनत,
छिद्रों में झांकता था,
आसमान आशाओं का
उसके सपनों का, जिनको
छुपा दिया था उसने ,
कुचले कपड़ों के ढेर में !
इसी छतरी ने सिखाया
था उसे गर्म हवा की
लू के थपेड़ों को झेलना ।
और पीना रिमझिम पड़ती
बारिश की बूँदों को ।
उसी छतरी की आड़ में
सर्द हवाओं के वार
सहे थे उसने, नाता बन
गया इस छतरी से था
उसका, जिसने निभाया था
साथ, हर न्यूनता को
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bsp; स्वीकार कर हर रिक्तता,
बन गई थी अब उसका
जीवनाधार, यहीं बैठी
रहती थी वह उसी की छाँव
अनिर्मेष, और अनासक्त सी।
सिलाई वाली अम्माँ थी।
पूरा मोहल्ला उसे इसी
नाम से पुकारता था,
वह मशीन वाली अम्मां थी।!!!!
फ़टे हुए कपड़ों के ढेर पर
टिकी रहती उसकी आशाएं।
धूप-छाँव से कुम्हलाए
हुए उसके अधरों ने ,
की न थी शिकायतें।
न थकान थी वहाँ
न कोई कंपन, उन
होंठों पर अगर कुछ था ,
तो था .ठहरा हुआ मौन !
केवल मौन ! निशब्दता!
कोहरे में तरंगित होती थी ,
तो वह थी उसके मशीन ,
के चलने की आवाज !
अनवरत सीती रहती थी
उन नये पुराने कपड़ों को,
मशीन वाली अम्माँ
कहकर पुकारता था,
पूरा मोहल्ला उसे !!!!!
चलते हुए हाथ मूक
शब्द बन एक पल के
लिए भी न रुकते थे।
विधवा थी या सधवा,
बच्चों वाली या निःसंतान,
मायने नहीं रखता मायने रखता
दिनचर्या उसकी नियत थी।
सवेरे ढोकर आती झाड़-पोंछ
कर बैठ हाथ चलने लगते
दिन कटने लगता निरंतर
अबाध गति से दिन होता
शाम होती फिर होती रात !
लेकिन उसका जीवन तो
ठहर गया था, चल रही
तो केवल मशीन !!
किसी का एक पैसा भी,
न रखती न छोड़ती थी
बड़ी आत्माभिमानी थी !
उम्र से नहीं किस्मत से बूढ़ी।
थी तो चालीस के पार,
लेकिन थी मोहल्ले की अम्माँ,
पूरा मोहल्ला उसे यही,
कहकर पुकारता था,
वह मशीन वाली अम्माँ थी ।