खुद्दारी
खुद्दारी
जगी इतनी बस ख़ुद्दारी कि ,
हमने माँगना ही छोड़ दिया ।
जानकर तुझे ए संगदिल,
सामने तेरे ,रोना ही छोड़ दिया !
कुछ तो होगा स्वार्थ उसका,
जो सताता है इतना हमें,
दिखा बढ्प्पन हमने भी आज ,
माफ कर उसे ,छोड़ ही दिया!
था हाथ सर पर उसका नसीब ,
मुसीबत के हर एक मंजर पर ,
टूटी आज सब आस हमारी,
उसी रहबर की चौखट पर,
आलम है कि पी रहे हैं अब ,
ग़मों दर्दों के घूँट हंस हंसकर ,
अब तो दुनिया को भी है शिकायत
क्यों हमने रोना ही छोड़ दिया !
कर ले सितम ए भाग्य ,
जितना भी तू ज़ोर लगाकर,
बिखरेंगे नहीं ,ली है कसम ,
किसी भी अब मुसीबत पर,
हो जाएगी हर राह रोशन ,
गर हो हमारे हौसलों मे दम,
टूटे साहिल भी पा लेंगे किनारा कभी न कभी ,
सोच यह आज हमने,सोग मनाना ही छोड दिया!
