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ritesh deo

Abstract

4  

ritesh deo

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सैनिक

सैनिक

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सैनिक.... 


कितना छोटा सा शब्द 

और शायद उतना ही छोटा पद 

किंतु जिम्मेदारी.... शायद सबसे बड़ी ।


एक ऐसी जिम्मेदारी 

जो शायद एक सैनिक ही उठा सकता है।

क्योंकि उसके कंधे मजबूत है मेरे और आपके कंधों से....


जिम्मेदारी.....

शतरंज के बिसात पर अपने राजा की रक्षा करने की

और युद्ध के मैदान में अपने देशवासियों की रक्षा करने की

बिना अपने प्राणों की परवाह किए बिना

बिना एक क्षण सोचे, बिना झिझके एक निर्णय लेने की....

मुझे बस डटे रहना है युद्ध के मैदान में

अपनी आखिरी सांस तक.... लहू के आखरी बूंद तक 

तिरंगे को झुकने नहीं देना है....देश का सम्मान मिटने नहीं देना है


ये जिम्मेदारी होती है एक सैनिक की....

कोई उसे ये जिम्मेदारी बताता नहीं, समझाता नहीं

फिर भी वह खुद ही समझ लेता है अपनी जिम्मेदारी और लग जाता है उसे निभाने में।


लेकिन....लेकिन.... लेकिन.....

उसकी कुछ अन्य जिम्मेदारियां भी होती है जिसे उसे निभाना होता है


अपने प्रति अपने देखे हुए सपने के प्रति...

अपने माता पिता के प्रति उनके बुढ़ापे का सहारा होने की...

अपने पत्नी के प्रति जिसका हाथ थाम कर उसने जीवन भर साथ रहने का वचन दिया था

अपने बच्चे के प्रति जिसका माथा चूमकर उसके सुनहरे भविष्य का संकल्प लिया था

अपनी बहन के प्रति जिससे राखी बंधवा कर उसकी डोली उठाने का वादा किया था....

अपने छोटे भाई के प्रति जिसके साथ बचपन में खेलते हुए जीवन भर साथ हँसने का ख्वाब देखा था.....


लेकिन वह इन सभी सपनों को छोड़ चलता है मुंह मोड़ कर

किसी और बड़ी जिम्मेदारी को निभाने जो शायद इन जिम्मेदारियों से भी बड़ी है

अपनी मातृभूमि के रक्षा की जिम्मेदारी....

वह अपने छोटे से परिवार की जगह चुनता है

एक विशाल परिवार की जिम्मेदारी....अपने देशवासियों की जिम्मेदारी।

सच में इतना आसान नहीं होता एक सैनिक होना।


लेकिन आखिर एक बेटा, एक पति, एक भाई, एक पिता कैसे छोड़ देता है

अपने उस छोटे से परिवार की जिम्मेदारियां ?????....


शायद....उसके मन में यह खयाल रहता होगा

कि जिस बड़े परिवार की खातिर वह अपने छोटे परिवार को छोड़ आया है

उस बड़े परिवार के कुछ सदस्य उसके पीछे उसके परिवार का ध्यान रखेंगे उसकी कमी महसूस नहीं होने देंगे

उसे शायद पूरा भरोसा होता है

इसलिए वह निश्चिंत होकर सरहद पर

अपने फर्ज को अंजाम देता है ।


जब एक सैनिक छुट्टियों में घर आता है

बिना दीवाली के भी शाम जगमग हो जाती है।

पत्नी ....जो श्रृंगार करना भूल गई थी वह स्वयं को सजाती है।

बूढ़ी मां... जिसने शायद कुछ सालों पहले खाना पकाना छोड़ दिया था वह पकवान बनाती है 

बूढ़े पिताजी.... जो घर के सूनेपन से भागने के लिए खेतों पर जाने का बहाना करते थे

वे अब घर पर रुकने लगते है...

बच्चों को तो मानो पिता की गोद में सारे संसार का सुख मिल जाता है....

भाई बहन का वही बचपन लौट आता है...

संगी साथी मिलने आते है और साथ में लाते है वही जवानी के दिनों की रंगीनियां.....


लेकिन तब कैसा माहौल होता होगा जब एक सैनिक तिरंगे में लिपटा हुआ आता है.....


उसकी पत्नी की सूनी मांग

बूढ़े माता पिता का मृत्यु से पहले ही मर जाना

अबोध बच्चों का वो पिता की गोद में जाना लेकिन प्रतिक्रिया ना पाकर रोना

बहन का अपनी डोली उठने की जगह किसको रखी बांधेगी....ये सोचना

भाई कि ये दुविधा की वो रोए या सबको हिम्मत बंधाए

दोस्तों के जीवन का वो सूनापन जो शायद अब यादों से ही भरेंगी....

सच में इतना भी आसान नहीं होता एक सैनिक के परिवार का जीवन....


जाने क्यों मेरी कलम ये लिख नहीं पा रही

स्याही खत्म हो गई है या फिर आंसू बनकर आंखों में आ गई है...

मेरे हाथ कांप रहे है या फिर...कागज उन शब्दों को स्वीकार करने से मना कर रहा है

ये कहते हुए कि नहीं.... मुझमें वह क्षमता नहीं जो

एक सैनिक के बलिदान को उकेर पाऊं अपने ऊपर....... 


सच में एक सैनिक पूजनीय है...

पूजनीय है उसका त्याग और बलिदान

पूजनीय है उसका परिवार 




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