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राठौड़ मुकेश

Tragedy

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राठौड़ मुकेश

Tragedy

दर्द सर्दी का

दर्द सर्दी का

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काँपती रूहें

शहरी फुटपाथों पर

जूँ तक न रेंगती

सियासत के कानों पर


थरथराता पारा

धड़ धड़ाती ठिठुरन

सर्द हवा के थपेड़े

जूझते रहते


दीन मौन साधकर

दर्द की हद इतनी

कि जाँ तक निकलती

चिथड़े लिपटे तन से


जाने कब व्यथा ये

मिटेगी वतन से

खाने खसोटने में लगा है

हर रसूखदार यहाँ


क्यों मुकर जाता है

हर जिम्मेदार वचन से।


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