नासूर सी भूमि
नासूर सी भूमि
अब ये भूमि नासूर सी लगती है
एक दिलजले की लिखी गज़ल सी लगती है
पग-पग रक्त के धब्बों से सजी
जवानों के लाशों की बस्ती सी लगती है
उजड़ी सियासत सी दहलीज़ से सूने घर
सूनी गलियाँ शहीदों की लगती है
मजमा है आस-पास शोर-शराबा जनाक्रोश
फिर भी सबके मन में तन्हाई सी पलती है
शहीदों के तन के कतरे कतरे से
हर दिल में बदले की आग सी सुलगती है
अश्कों से नम मोमबत्ती की रोशनी भी
अमावस सी काली कलूटी ही लगती है
सरहद के उस पार से गोलीयाँ ही चलती है
इस पार तिरंगे में लिपटी जानें मिलती है
कब देखेंगी आँखें नज़ारा उस पार भी
दर्द की बारिश में जले कभी दुश्मन
गमगीन भी।