कैसे मनाऊँ मैं दशहरा
कैसे मनाऊँ मैं दशहरा
चारों ओर अन्याय, अनीति ,असत्य, अधर्म का जब पहरा है!
कैसे मनाऊँ मन से मैं आयी आज दशहरा है !
पुतले का हम दहन कर ,मन में भारी वहम कर !
अपने अंदर के रावण को दहन करने को लेकर
उर -अंतर में अब भी संशय बहुत गहरा है !
कैसे मनाऊँ मन से मैं आयी आज दशहरा है!
किस खुशी में आनंदित होऊँ मैं !
बाह्याआडंबर का मैं क्यों बखान करूँ!
कैसे अंतर्मन को दिलासा दिलाऊँ मैं कि दुनिया बहुत सुनहरा है !
अंतरात्मा की पुकार सुना मैंने,
लाखों के ठाठ - बाट वाले पंडालों की भीड़ में बूढ़ी माँ के आवाज सुने कौन !
हुए जो कान सबके बहरा है !
कैसे मनाऊँ मन से मैं आयी आज दशहरा है!
किस फूल को चढ़ाएं माँ के चरणों में
जब कली खिलने से पहले ही हमने मरोड़ा है!
उन बेबस कराहती आवाजों में कैसे मैं मंगल गान करूँ!
चहूं ओर छायी धुंध तमस की, घिरी घना आकाश में कोहरा है!
कैसे हँसी - खुशी के गीत गाऊँ !
मिष्ठान और पकवान खाऊँ !
कैसे खुद को तसल्ली दूं मैं आयी वही असत्य पे सत्य की ,
अधर्म पे धर्म की ,अहंकार पे विनम्रता की विजय की अवसर सुनहरा है!
जब चारों ओर अन्याय, अनीति, अधर्म, असत्य का पहरा है!
