किसान
किसान
चीर के धरती के सीने को नए -नए अंकुर है उगाता,
करके मेहनत अन्न उगाता , भूख वो जन-जन की मिटाता ।
कड़कती धूप हो या ठिठुरती सर्दी या हो काली घटा से बरसती बरखा,
मुंह में निवाला ना तन पे दुशाला ,जेठ महीना, या पूस की रात, इनके लिए एक जैसे हालात ।
पायल , बिंदिया , कंगना , हार ऐसा नहीं उसे रास ना आता,
उसको भी सजना - संवरना भाता।
उंडेल कर अपने सपनों को खेत में ,देख कर खुशी चेहरे पे बच्चों के ,
खुशी से उसका मन मयूर है अकुलाता।
आलस कभी ना मन में रहता , बिन बोले चुपचाप ,सूखा, बाढ़ ,
कुदरत का कहर है सहता रहता,
सूरज उगने से पहले उठता , सबको निवाला देने वाला ,
कभी - कहीं खुद बिन निवाला रह जाता ।
जो सबको अन्न खिलाता , वो खुद क्यों भूखा रह जाता ?
कभी करनी पड़ जाती खुदकुशी भी, जब ना मिलती कीमत धान की अच्छी,
साहुकार का कर्ज़ा ना उतर पाता,
कोई तो समझें उसकी व्यथा, वरना एक
दिन बन जाएगी किसान की किसानी एक कथा।