हक़ है अरमानों को पंख लगाने का
हक़ है अरमानों को पंख लगाने का
हक है उसे भी जीने का, अपने दिल के ज़ख्मों को सीने का,
सजाकर अरमानों को इन्द्रधनुषी रंगों से इश्क का जाम पीने का,
क्यूं उस पर बंदिशे लगाई जाती है, क्यों विधवा अपशगुनी कहाई जाती है,
कभी किसी मर्द से ग़र करें वो बात तो क्यों उसपर तोहमत लगाई जाती है,
विधवा करके शादी करे अरमान पूरे तो बवाल ज़माना कर देगा,
विधुर कर लें चाहे दो-दो शादी खुशी से बधाई ज़माना उसे देगा,
हां वो विधवा है और इसी उपनाम से बुलाई जाती है,
क्यों अपने अरमानों संग-संग वो भी जलाई जाती है,
कब तक विधवा के अरमानों को करके स्वाह उसे जीते-जी जलाया जाएगा,
है ज़रूरत ज़माने में बदलाव की, ना जाने कब ज़मानें में बदलाव आएगा,
हक है उसे भी सजने-संवरने का, अपने दिल के अरमानों को पूरा करने का,
हक़ है उसे भी हॅंसने का, खोलकर पिंजरा आसमान में उन्मुक्त उड़ने का,
कहने को सब कहते विधवा विवाह से परहेज़ नहीं,
बताएं मुझे वो ज़रा जब आती खुद पर तो क्या वो करते इन बातों से गुरेज़ नहीं?
जब बदलेगी सोच, तब रंग नया होगा ज़माने का,
हक़ है एक बेवा को भी घर बसाने का, अपने अरमानों को पंख लगाने का।