ग़ज़ल
ग़ज़ल
क़फ़स खोला था मैंने आज जब पंछी उड़ाने को
परिंदा रुक गया इक जेल के किस्से सुनाने को
ये तन्हाई घुटन औ' बेबसी कमरे में फैली है
रखी थी छत पे आँखें दो कभी हमने सुखाने को
दरख़्तों की वो परछाई वो आँगन का खिला होना
कहाँ आती है अब चिड़िया घरों में चहचहाने को
मिरे पैरों की ये ज़ंजीर उस पल छन छना उट्ठी
हिलाया पैर जब भी ख़्वाब में पायल बजाने को
ख़मोशी ये मेरे अंदर की शब भर रक़्स करती है
मैं गाती लोरियाँ और थपकियाँ देती सुलाने को
गई थी आसमाँ पे मैं जो छूने चाँद और तारे
फ़क़त जुगनू लगे हैं हाथ मेरे जगमगाने को
किताबों से यकीनन जी 'हिया' अब भर गया होगा
वो मुद्दत बाद लौटा है मिरा दर खटखटाने को।