स्त्री की चाहत
स्त्री की चाहत
स्त्री की चाहत
कोई बहुत बड़ी नहीं होती
ना दुर्लभ होती है
जिसे पाया ना जा सके,
वो सिर्फ होती है
कल्पना भर
तो स्वयं स्त्री के लिए,
क्यों कि इस संसार में
सब कुछ मिलता है
सिवाय चैन के,
प्यार और सम्मान के,
जो स्त्री को मिलता तो है
बस थोड़ा सा या
कुछ अधूरा सा.....!
वो चाहती है खुद के लिए
एक मुठ्ठी भर आसमान,
जहां वो बुन सके
ढेरों अनेकों रंगीन सुनहरे सपने,
जिन पर पंख लगे हों
जो ले जाएं उसे दूर
कहीं बादलों के उस पार,
जहां मन का चैन हो,
एक शांत कोना
जो उसकी मन की व्याकुलता को,
उसकी इच्छाओं को
नया मोड़ दे,
जहां वक्त सिर्फ उसका हो
ना वहां स्वार्थ हो
ना कोई दमन
ना कोई आक्रोश दिल में,
जहां रिश्तों की डोर मजबूत हो
जहां उसकी कद्र हो,
ना वो गुलाम हो किसी की
ना उस पर किसी का अधिकार हो,
वो स्वतंत्र हो
अपनी खुशियों के खातिर,
कोई बंदिशें उसे रोकती ना हो,
ना बांधती हो इसके पैरों को
बिना किसी वजह किसी परिधि में,
एक ऐसा जहां
जहां वो खुद के दर्द को
महसूस कर सके
बयां कर सके उसकी तड़प को,
जोड़े तिनका तिनका
वो अपनी अधूरी ख्वाहिशों को
अपने टूटे दिल में
सहेजे उसमें अपने अक्श को
अपनी खुशियों के साथ....!
स्त्री की चाहत बस यही तो होती है
इतनी सी तो होती है
और उसे क्या चाहिए
थोड़ा प्यार
थोड़ा सम्मान
अपनापन,
दर्द हो या दुःख
एक अदद कांधा,
भावनाओं के उफान को बांधने वाला
एक सच्चा प्रेमी,
दिल से प्यार करने वाला
जिसमे त्याग हो समर्पण हो उसके लिए
और स्वार्थ रत्ती भर भी नहीं.....!
जिसके लिए वो खुद
स्वयं बिछ जाए उसके कदमों में,
जिसका स्पर्श पाक हो
जिससे वो खिल जाए गुलाब सी,
जो उसके रोम रोम में
बसा हो
सिर्फ उसका हो
जिसे वो खुद में समा ले
महसूस करे उसकी ठंडक को,
जो दे उसे सुकून
हर परिस्थिति में
जिंदगी के हर उतार चढ़ाव में
हर दर्द में,
भर दे एहसास अपने होने का
कि मैं हूं ना
सिर्फ तुम्हारे लिए,
स्त्री बस यही तो चाहती है.....।