कवि की कल्पना
कवि की कल्पना
मेरे जैसे कवि ने आज ठान लिया है
की औरतों को अब सारे अधिकार दिए जाए...
बस फिर क्या?
आज से मैंने चाँद को भी तुम औरतों के हवाले कर दिया है...
और सूरज के दरवाज़े की चाबी भी तुम्हें ही थमा दी है...
देख लेना आज से ये चाँद और सूरज तुम्हारे ही हुक्म के ताबेदार होंगे...
तुम अपनी मर्ज़ी से ही सूरज को आने जाने की आज्ञा दोगी...
रात में आसमाँ के जगमगाते तारों का यह कैनवास भी मैं तुम्हे ही सौंप रहा हुँ
तुम अपने मनमाफ़िक रंग उसमे भर सकती हो....
काले बादलों से भरे हुए ये सारे मेघ भी मैं तुम्हारे क़ब्ज़े में देना चाहता हुँ...
जब चाहे तुम उन बारिश की भीनी भीनी बूंदों में नहा सकती हो...
यह बहती नदी भी मैं आज से तुम औरतों के हवाले कर रहा हूँ...
यह नदी भी अब सिर्फ़ तुम्हारे ही आज्ञा से अपना प्रवाह मोड़ सकेगी...
और यह बहती हवा को भी तुम्हारे कंट्रोल में रखना चाहता हूँ...
ताकि तुम अपनी इच्छानुसार इस बेलगाम हवा को रोक सको....
तुम आज से बिल्कुल भी खुद को अबला नारी समझने की भूल न करना...
अब तो तुम वेद पुराणों के समय वाली ताक़तवर मनीषी हो गयी हो....
जो अब किसी को भी शाप और उ:शाप दे सकती है....
आज और आज से यह दुनिया तुम्हारी ही होगी...
इसपर तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा ही राज होगा....
हे कवि महाशय, हम औरतों ने जान लिया है कि तुम बस एक कवि हो...
जिसे सिर्फ़ अल्फाज़ के साथ भावनाओं को पिरोना आता है....
जो बस अपनी बनाई उस दुनिया मे ही मशगूल रहता है....
हक़ीक़त का भला तुम कवियों को कहाँ अंदाज़ा होता है?
तुम तो बस कविता में कल्पनाएँ ही कर सकते हो
ये चाँद क्या अपनी हरकतों से बाज़ आयेगा भला?
क्या ये अपनी ताका झांकी वाली आदत छोड़ हमारे मन मुताबिक रह पाएगा?
और ये सूरज क्या इतना फ़रमाबर्दार है जो हमारे कहे अनुसार करेगा?
हाँ, यह हवा और नदियाँ ज़रूर हमारे हुक्म की तामील कर सकेगी...
लेकिन यह चाँद और सूरज की तारीफ़ें करना बंद कर दो...
क्योंकि वे न तब मानते थे और न आज मानेंगे....
तुम्हारे इन काले बादलों के बारे में क्या कहना?
इनको तो अपनी मर्ज़ी की ही करने की आदत है...
हे कवि महाशय, तुम बस अपनी कल्पनाओं में ही मगन रहते रहो....
और हम औरतों को हमारे हाल में ही छोड़ दो
सही कहा है तुमने, "हम औरतें अब ताक़तवर हो गयी है....
हाँ,पढ़ लिख कर हमने अपनी बुद्धि का लोहा जो मनवा लिया है...."