कहानी में कविता
कहानी में कविता


काश कविता कहानी से बात कर अपने मन की गाँठे खोल सकती…
कविता फिर स्त्री के संघर्ष और उसके सर्वाइवल इंस्टिंक्ट की कहानी कहेगी…
और कहानी में फिर स्त्री मन को जानने बुझने वाले कविता का भाव होगा…
स्त्री मन कितनी सारी चीज़ें अपने अंदर समेटे होता है…
स्त्री मन की गहरायीं कोई भाँप सकता है भला?
उसमे बसी उन सारी इन्द्रधनुषी चाहतों को और सारी यादों का हिसाब हो सकता है?
स्त्री मन पर क्या कोई कविता बनेगी जो आज़ादी की क़ीमत पर ज़िन्दगी भर पिंजरे में बसर करती हो…
कहानी की स्त्री अपनी जिंदगी की सिलवटें और कश्मकश की गिरहें को क्या कभी खोल पाएगी?
स्त्री बिना थके…बिना टूटे…अपने हक़ के साथ बेपरवाही से ज़िंदगी जीना चाहती हैं…
लेकिन स्त्री जब प्रेम में होती है तब वह एकदम अलग रूप में होती है…
स्त्री अपनी प्रेमी की चाहत को अपनी ज़िंदगी मानकर जीवन बिताती है…
प्रेमी को जिंदगी का मरकज़ बना लेती हैं..
अपनी पर्सनालिटी को पीछे छोड़ प्रेमी को तरज़ीह देकर ख़ुद को भुला देती हैं…
लेकिन अब वक़्त बदल गया हैं…कविता में और कहानी में भी…
हक़ीक़त की स्त्री अब कविता और कहानी की स्त्री के साथ इन सब से बाहर निकलना चाहती हैं …
प्रेमी की शैडो से बाहर निकलकर वह अपनी जिंदगी का मरकज़ ख़ुद बनना चाहती हैं…
कहानी फिर से कविता से बातें कर जाने अनजाने में उस रिश्तों की गिरहें खोलते हुए नयी इबारत लिखेगी..