STORYMIRROR

Kunda Shamkuwar

Abstract Drama Others

4.5  

Kunda Shamkuwar

Abstract Drama Others

कैफ़ियत

कैफ़ियत

1 min
250

ये ख़ुशबू से महकते लाल गुलाब…

और हरसिंगार के लरजते फूल…

ये खिलखिलते हुए लैवेंडर के फूल …

और गुनगुनी धूप में चम्पा के पीले फूल…

क्यों बेवजह मुस्कुराते लग रहे है…


घर में पर्दों से सज़ी खिड़कियाँ…

और छोटे छोटे ख़ूबसूरत झरोखें…

कोने का वह खूबसूरत सा नाईट लैंप…

ड्रॉइंग रूम की पेंटिंग्स से सजी दिवारें…

बाल्कनी की फूलों से भरी बगिया

सब कुछ क्यों बेवजह लग रहा है… 


यूँही घर से निकलना…

किसी मॉल में ऐसे ही घूमना फिरना…

परफ्यूम और कॉस्मेटिक्स को यूहीं देखना 

विंडो शॉपिंग करना…

घर आकर किसी क़िताब को यूहीं पलटना 

बाल्कनी में यूहीं बार बार जाना…

सब बेवजह क्यों लग रहा है…


प्लास्टिक स्माइल से मिलते लोग… 

ऑफिस में दौड़ते भागते लोग…

मॉल में शॉपिंग और ईटिंग करते लोग…

ड्रॉइंग रूम के आर्टिफिशियल फ्लावर्स…

फेस बुक के खिलखिलाते चेहरें के पोस्ट… 

इंस्टा फेस बुक के रील और फनी मीम्स…

सबकुछ क्यों बेवजह लग रहा है…


कुछ बात तो है…

जो बेवज़ह नहीं है…

बस मन की बात ही तो है…

बात कहाँ मानती है?

बात कहाँ रुकती है?

प्रेमिका से दूसरी पत्नी बनने की यह शर्त उसने ख़ुद ही तो क़ुबूल की थी…

सैटरडे संडे का उनका वहाँ पहली पत्नी के पास जाना…

लेकिन अब ये 'बाँटना 'उसे खालीपन देने लगा है…

किसे कहे वह मन की बात?
मन की बात तो फ़क़त मन की बात होती है 

मन की इस अजीब सी कैफ़ियत से ही सब कुछ बेवजह लग रहा है…




Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract