ग्रोइंग अप…
ग्रोइंग अप…
तुम्हारे बचपन की वे बातें कितनी अनोखी थी…
अपने नन्हे हाथ से मेरा हाथ पकड़ कर तुम चलना सीख रहे थे...
तुम्हारा पहला कदम...
दीवार का सहारा लेकर तुम्हारा यूँ रुक रुक कर चलना…
मैं आनंद और पूरे आवेग से चीखी...
मुन्ना चल रहा है...
अपना मुन्ना चलने लगा है...
खट खट कर उस मोमेंट को कई फ़ोटोज़ में कैप्चर कर लिया था…
कभी अपने नन्हे हाथों से मेरा हाथ पकड़ते हुए
और कई बार मेरे हाथों को तुम अपनी नन्ही उँगलियों से भींचते हुए...
तुम बड़े होते गए...
बहुत बड़े होते गए…
आज वे सारी बातें मुझे याद आ रही है...
क्योंकि अब तुम मेरे पास नहीं हो…
शायद किसी अनजान जगह पर हो...
जाने अनजाने लोगों के बीच हो...
उन नन्हे हाथों का स्पर्श अब बीते ज़माने की बात हो गयी...
जो नन्हे हाथ कभी मेरे हाथों को पकड़कर चला करते थे अब वे बलिष्ठ हो गए है...
आज वे हाथ मेरे हाथों को झिड़कने लग रहे है...
अपनी भारी आवाज़ से मुझे कण्ट्रोल करने लग रहे है...
कभी कभी मुझे मेरी ही हद में रहने का आर्डर देने लगे है...
कभी एक घर मेरा भी हुआ करता था...
किसी अभेद्य किले का अहसास देता हुआ...
लेकिन आज न तो वह घर रहा...
और न ही कोई मंज़िल भी....
ना कोई अपना रहा…
जैसे हर कोई पराया...
और हर कोई अजनबी...
कहते है वक़्त हर चीज़ भुला देता है...
झूठ कहते है लोग...
क्योंकि आज मुझे उन नन्हे हाथों की
नन्ही मुट्ठी में भींचे मेरे हाथ की यादें
अब के तुम्हारे इन बलिष्ठ हाथों से भी ज्यादा ताकतवर लगती है...
